श्री रामचरितमानस
षष्ठ सोपान
||लंकाकाण्ड||
श्लोक
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।।१।।
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्।।२।।
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे।।३।।
|| दोहा ||
लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड।।
|| सोरठा ||
सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु।।
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं।।
यह लघु जलधि तरत कति बारा।
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा।।
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी।।
तब रिपु नारी रुदन जल धारा।
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा।।
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी।।
जामवंत बोले दोउ भाई।
नल नीलहि सब कथा सुनाई।।
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।।
बोलि लिए कपि निकर बहोरी।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी।।
राम चरन पंकज उर धरहू।
कौतुक एक भालु कपि करहू।।
धावहु मर्कट बिकट बरूथा।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।
सुनि कपि भालु चले करि हूहा।
जय रघुबीर प्रताप समूहा।।
|| दोहा-०१ ||
अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ।।
सैल बिसाल आनि कपि देहीं।
कंदुक इव नल नील ते लेहीं।।
देखि सेतु अति सुंदर रचना।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना।।
परम रम्य उत्तम यह धरनी।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी।।
करिहउँ इहाँ संभु थापना।
मोरे हृदयँ परम कलपना।।
सुनि कपीस बहु दूत पठाए।
मुनिबर सकल बोलि लै आए।।
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।
सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।
|| दोहा-०२ ||
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास।।
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं।।
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।
सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि।।
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।
राम बचन सब के जिय भाए।
मुनिबर निज निज आश्रम आए।।
गिरिजा रघुपति कै यह रीती।
संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।
बाँधा सेतु नील नल नागर।
राम कृपाँ जसु भयउ उजागर।।
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई।
भए उपल बोहित सम तेई।।
महिमा यह न जलधि कइ बरनी।
पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी।।
|| दोहा-०३ ||
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।।
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
देखि कृपानिधि के मन भावा।।
चली सेन कछु बरनि न जाई।
गर्जहिं मर्कट भट समुदाई।।
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई।
चितव कृपाल सिंधु बहुताई।।
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा।
प्रगट भए सब जलचर बृंदा।।
मकर नक्र नाना झष ब्याला।
सत जोजन तन परम बिसाला।।
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं।
एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं।।
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे।
मन हरषित सब भए सुखारे।।
तिन्ह की ओट न देखिअ बारी।
मगन भए हरि रूप निहारी।।
चला कटकु प्रभु आयसु पाई।
को कहि सक कपि दल बिपुलाई।।
|| दोहा-०४ ||
सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं।।
अस कौतुक बिलोकि द्वौ
भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई।।
सेन सहित उतरे रघुबीरा।
कहि न जाइ कपि जूथप भीरा।।
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा।
सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा।।
खाहु जाइ फल मूल सुहाए।
सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए।।
सब तरु फरे राम हित लागी।
रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।।
खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं।
लंका सन्मुख सिखर चलावहिं।।
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं।
घेरि सकल बहु नाच नचावहिं।।
दसनन्हि काटि नासिका काना।
कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना।।
जिन्ह कर नासा कान निपाता।
तिन्ह रावनहि कही सब बाता।।
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना।
दस मुख बोलि उठा अकुलाना।।
|| दोहा-०५ ||
बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।
निज बिकलता बिचारि बहोरी।
बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी।।
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो।
कौतुकहीं पाथोधि बँधायो।।
कर गहि पतिहि भवन निज
आनी। बोली परम मनोहर बानी।।
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा।
सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा।।
नाथ बयरु कीजे ताही सों।
बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।।
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा।
खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।।
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे।
महाबीर दितिसुत संघारे।।
जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा।
सोइ अवतरेउ हरन महि भारा।।
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा।
काल करम जिव जाकें हाथा।।
|| दोहा-०६ ||
रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ।।
नाथ दीनदयाल रघुराई।
बाघउ सनमुख गएँ न खाई।।
चाहिअ करन सो सब करि बीते।
तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।।
संत कहहिं असि नीति दसानन।
चौथेंपन जाइहि नृप कानन।।
तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता।
जो कर्ता पालक संहर्ता।।
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी।
भजहु नाथ ममता सब त्यागी।।
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी।
भूप राजु तजि होहिं बिरागी।।
सोइ कोसलधीस रघुराया।
आयउ करन तोहि पर दाया।।
जौं पिय मानहु मोर सिखावन।
सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन।।
|| दोहा-०७ ||
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात।।
तब रावन मयसुता उठाई।
कहै लाग खल निज प्रभुताई।।
सुनु तै प्रिया बृथा भय माना।
जग जोधा को मोहि समाना।।
बरुन कुबेर पवन जम काला।
भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला।।
देव दनुज नर सब बस मोरें।
कवन हेतु उपजा भय तोरें।।
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई।
सभाँ बहोरि बैठ सो जाई।।
मंदोदरीं हदयँ अस जाना।
काल बस्य उपजा अभिमाना।।
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा।
करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा।।
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा।
बार बार प्रभु पूछहु काहा।।
कहहु कवन भय करिअ बिचारा।
नर कपि भालु अहार हमारा।।
|| दोहा-०८ ||
सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि।।
कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती।
नाथ न पूर आव एहि भाँती।।
बारिधि नाघि एक कपि आवा।
तासु चरित मन महुँ सबु गावा।।
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू।
जारत नगरु कस न धरि खाहू।।
सुनत नीक आगें दुख पावा।
सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा।।
जेहिं बारीस बँधायउ हेला।
उतरेउ सेन समेत सुबेला।।
सो भनु मनुज खाब हम भाई।
बचन कहहिं सब गाल फुलाई।।
तात बचन मम सुनु अति आदर।
जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।।
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं।
ऐसे नर निकाय जग अहहीं।।
बचन परम हित सुनत कठोरे।
सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।।
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती।
सीता देइ करहु पुनि प्रीती।।
|| दोहा-०९ ||
नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि।।
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा।
उभय प्रकार सुजसु जग तोरा।।
सुत सन कह दसकंठ रिसाई।
असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई।।
अबहीं ते उर संसय होई।
बेनुमूल सुत भयहु घमोई।।
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा।
चला भवन कहि बचन कठोरा।।
हित मत तोहि न लागत कैसें।
काल बिबस कहुँ भेषज जैसें।।
संध्या समय जानि दससीसा।
भवन चलेउ निरखत भुज बीसा।।
लंका सिखर उपर आगारा।
अति बिचित्र तहँ होइ अखारा।।
बैठ जाइ तेही मंदिर रावन।
लागे किंनर गुन गन गावन।।
बाजहिं ताल पखाउज बीना।
नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना।।
|| दोहा-१०||
सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।
इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा।
उतरे सेन सहित अति भीरा।।
सिखर एक उतंग अति देखी।
परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी।।
तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए।
लछिमन रचि निज हाथ डसाए।।
ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला।
तेहीं आसान आसीन कृपाला।।
प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा।
बाम दहिन दिसि चाप निषंगा।।
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना।
कह लंकेस मंत्र लगि काना।।
बड़भागी अंगद हनुमाना।
चरन कमल चापत बिधि नाना।।
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन।
कटि निषंग कर बान सरासन।।
|| दोहा-११ क, ख ||
एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक।।
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी।
परम प्रताप तेज बल रासी।।
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी।
ससि केसरी गगन बन चारी।।
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा।
निसि सुंदरी केर सिंगारा।।
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई।
कहहु काह निज निज मति भाई।।
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई।
ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई।।
मारेउ राहु ससिहि कह कोई।
उर महँ परी स्यामता सोई।।
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा।
सार भाग ससि कर हरि लीन्हा।।
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।
तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं।।
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा।
अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा।।
बिष संजुत कर निकर पसारी।
जारत बिरहवंत नर नारी।।
|| दोहा-१२ क, ख ||
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।।
नवान्हपारायण।। सातवाँ विश्राम
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान।।
देखु बिभीषन दच्छिन आसा।
घन घंमड दामिनि बिलासा।।
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा।
होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा।।
कहत बिभीषन सुनहु कृपाला।
होइ न तड़ित न बारिद माला।।
लंका सिखर उपर आगारा।
तहँ दसकंघर देख अखारा।।
छत्र मेघडंबर सिर धारी।
सोइ जनु जलद घटा अति कारी।।
मंदोदरी श्रवन ताटंका।
सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका।।
बाजहिं ताल मृदंग अनूपा।
सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा।।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना।
चाप चढ़ाइ बान संधाना।।
|| दोहा-१३ क, ख ||
छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान।
सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान।।13(क)।।
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग।।13(ख)।।
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा।
अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी।
असगुन भयउ भयंकर भारी।।
दसमुख देखि सभा भय पाई।
बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही।
मुकुट परे कस असगुन ताही।।
सयन करहु निज निज गृह जाई।
गवने भवन सकल सिर नाई।।
मंदोदरी सोच उर बसेऊ।
जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।।
सजल नयन कह जुग कर जोरी।
सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।
कंत राम बिरोध परिहरहू।
जानि मनुज जनि हठ मन धरहू।।
|| दोहा-१४ ||
बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।
पद पाताल सीस अज धामा।
अपर लोक अँग अँग बिश्रामा।।
भृकुटि बिलास भयंकर काला।
नयन दिवाकर कच घन माला।।
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा।
निसि अरु दिवस निमेष अपारा।।
श्रवन दिसा दस बेद बखानी।
मारुत स्वास निगम निज बानी।।
अधर लोभ जम दसन कराला।
माया हास बाहु दिगपाला।।
आनन अनल अंबुपति जीहा।
उतपति पालन प्रलय समीहा।।
रोम राजि अष्टादस भारा।
अस्थि सैल सरिता नस जारा।।
उदर उदधि अधगो जातना।
जगमय प्रभु का बहु कलपना।।
|| दोहा-१५, क,ख ||
अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान।।
अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ।।
बिहँसा नारि बचन सुनि काना।
अहो मोह महिमा बलवाना।।
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।
साहस अनृत चपलता माया।
भय अबिबेक असौच अदाया।।
रिपु कर रुप सकल तैं गावा।
अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।
सो सब प्रिया सहज बस मोरें।
समुझि परा प्रसाद अब तोरें।।
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई।
एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई।।
तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि।
समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।।
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ।
पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ।।
|| दोहा-१६ क ||
एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।
सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध।।
|| सोरठा १६ ख
||
फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।।
इहाँ प्रात जागे रघुराई।
पूछा मत सब सचिव बोलाई।।
कहहु बेगि का करिअ उपाई।
जामवंत कह पद सिरु नाई।।
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी।
बुधि बल तेज धर्म गुन रासी।।
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा।
दूत पठाइअ बालिकुमारा।।
नीक मंत्र सब के मन माना। अं
गद सन कह कृपानिधाना।।
बालितनय बुधि बल गुन धामा।
लंका जाहु तात मम कामा।।
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ।
परम चतुर मैं जानत अहऊँ।।
काजु हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेहु बतकही सोई।।
|| सोरठा - १७ क ,ख ||
प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु।।
स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।।
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई।
अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।।
प्रभु प्रताप उर सहज असंका।
रन बाँकुरा बालिसुत बंका।।
पुर पैठत रावन कर बेटा।
खेलत रहा सो होइ गै भैंटा।।
बातहिं बात करष बढ़ि आई।
जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई।।
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई।
गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई।।
निसिचर निकर देखि भट भारी।
जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी।।
एक एक सन मरमु न कहहीं।
समुझि तासु बध चुप करि रहहीं।।
भयउ कोलाहल नगर मझारी।
आवा कपि लंका जेहीं जारी।।
अब धौं कहा करिहि करतारा।
अति सभीत सब करहिं बिचारा।।
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई।
जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।
|| दोहा-१८ ||
गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज।।
तुरत निसाचर एक पठावा।
समाचार रावनहि जनावा।।
सुनत बिहँसि बोला दससीसा।
आनहु बोलि कहाँ कर कीसा।।
आयसु पाइ दूत बहु धाए।
कपिकुंजरहि बोलि लै आए।।
अंगद दीख दसानन बैंसें।
सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें।।
भुजा बिटप सिर सृंग समाना।
रोमावली लता जनु नाना।।
मुख नासिका नयन अरु काना।
गिरि कंदरा खोह अनुमाना।।
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा।
बालितनय अतिबल बाँकुरा।।
उठे सभासद कपि कहुँ देखी।
रावन उर भा क्रौध बिसेषी।।
|| दोहा-१९ ||
जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ।।
कह दसकंठ कवन तैं बंदर।
मैं रघुबीर दूत दसकंधर।।
मम जनकहि तोहि रही मिताई।
तव हित कारन आयउँ भाई।।
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती।
सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती।।
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा।
जीतेहु लोकपाल सब राजा।।
नृप अभिमान मोह बस किंबा।
हरि आनिहु सीता जगदंबा।।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा।
सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा।।
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी।
परिजन सहित संग निज नारी।।
सादर जनकसुता करि आगें।
एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।।
|| दोहा-२० ||
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि।।
रे कपिपोत बोलु संभारी।
मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी।।
कहु निज नाम जनक कर भाई।
केहि नातें मानिऐ मिताई।।
अंगद नाम बालि कर बेटा।
तासों कबहुँ भई ही भेटा।।
अंगद बचन सुनत सकुचाना।
रहा बालि बानर मैं जाना।।
अंगद तहीं बालि कर बालक।
उपजेहु बंस अनल कुल घालक।।
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु।
निज मुख तापस दूत कहायहु।।
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई।
बिहँसि बचन तब अंगद कहई।।
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई।
बूझेहु कुसल सखा उर लाई।।
राम बिरोध कुसल जसि होई।
सो सब तोहि सुनाइहि सोई।।
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें।
श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें।।
|| दोहा-२१ ||
हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस।।
सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई।
चाहत जासु चरन सेवकाई।।
तासु दूत होइ हम कुल बोरा।
अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा।।
सुनि कठोर बानी कपि केरी।
कहत दसानन नयन तरेरी।।
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ।
नीति धर्म मैं जानत अहऊँ।।
कह कपि धर्मसीलता तोरी।
हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी।।
देखी नयन दूत रखवारी।
बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी।।
कान नाक बिनु भगिनि निहारी।
छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी।।
धर्मसीलता तव जग जागी।
पावा दरसु हमहुँ बड़भागी।।
|| दोहा-२२ क ,ख ||
जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु।।
पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास।।
तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद।
मो सन भिरिहि कवन जोधा बद।।
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना।
अनुज तासु दुख दुखी मलीना।।
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ।
अनुज हमार भीरु अति सोऊ।।
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा।
सो कि होइ अब समरारूढ़ा।।
सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला।
है कपि एक महा बलसीला।।
आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा।
सुनत बचन कह बालिकुमारा।।
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा।
साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा।।
रावन नगर अल्प कपि दहई।
सुनि अस बचन सत्य को कहई।।
जो अति सुभट सराहेहु रावन।
सो सुग्रीव केर लघु धावन।।
चलइ बहुत सो बीर न होई।
पठवा खबरि लेन हम सोई।।
|| दोहा-२३ क ,ख, ग, घ, ङ, छ ||
सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ।।
सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह।।
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेड़ुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।।
जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष।।
बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस।।
हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक।।
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा।
जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा।।
नाचि कूदि करि लोग रिझाई।
पति हित करइ धर्म निपुनाई।।
अंगद स्वामिभक्त तव जाती।
प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती।।
मैं गुन गाहक परम सुजाना।
तव कटु रटनि करउँ नहिं काना।।
कह कपि तव गुन गाहकताई।
सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।।
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा।
तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा।।
सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई।
दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई।।
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा।
तुम्हरें लाज न रोष न माखा।।
जौं असि मति पितु खाए कीसा।
कहि अस बचन हँसा दससीसा।।
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही।
अबहीं समुझि परा कछु मोही।।
बालि बिमल जस भाजन जानी।
हतउँ न तोहि अधम अभिमानी।।
कहु रावन रावन जग केते।
मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते।।
बलिहि जितन एक गयउ पताला।
राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला।।
खेलहिं बालक मारहिं जाई।
दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई।।
एक बहोरि सहसभुज देखा।
धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।।
कौतुक लागि भवन लै आवा।
सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा।।
|| दोहा-२४ ||
एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख।।
सुनु सठ सोइ रावन बलसीला।
हरगिरि जान जासु भुज लीला।।
जान उमापति जासु सुराई।
पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई।।
सिर सरोज निज करन्हि उतारी।
पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी।।
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला।
सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला।।
जानहिं दिग्गज उर कठिनाई।
जब जब भिरउँ जाइ बरिआई।।
जिन्ह के दसन कराल न फूटे।
उर लागत मूलक इव टूटे।।
जासु चलत डोलति इमि धरनी।
चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी।।
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी।
सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी।।
|| दोहा-२५ ||
तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान।।
सुनि अंगद सकोप कह बानी।
बोलु सँभारि अधम अभिमानी।।
सहसबाहु भुज गहन अपारा।
दहन अनल सम जासु कुठारा।।
जासु परसु सागर खर धारा।
बूड़े नृप अगनित बहु बारा।।
तासु गर्ब जेहि देखत भागा।
सो नर क्यों दससीस अभागा।।
राम मनुज कस रे सठ बंगा।
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।।
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा।
अन्न दान अरु रस पीयूषा।।
बैनतेय खग अहि सहसानन।
चिंतामनि पुनि उपल दसानन।।
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा।
लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा।।
|| दोहा-२६ ||
सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि।।
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि।।
सुनु रावन परिहरि चतुराई।
भजसि न कृपासिंधु रघुराई।।
जौ खल भएसि राम कर द्रोही।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही।।
मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला।
राम बयर अस होइहि हाला।।
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें।
परिहहिं धरनि राम सर लागें।।
ते तव सिर कंदुक सम नाना।
खेलहहिं भालु कीस चौगाना।।
जबहिं समर कोपहि रघुनायक।
छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।।
तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा।
अस बिचारि भजु राम उदारा।।
सुनत बचन रावन परजरा।
जरत महानल जनु घृत परा।।
|| दोहा-२७ ||
कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि।।
सठ साखामृग जोरि सहाई।
बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई।।
नाघहिं खग अनेक बारीसा।
सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।
मम भुज सागर बल जल पूरा।
जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा।।
बीस पयोधि अगाध अपारा।
को अस बीर जो पाइहि पारा।।
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा।
भूप सुजस खल मोहि सुनावा।।
जौं पै समर सुभट तव नाथा।
पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।।
तौ बसीठ पठवत केहि काजा।
रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा।।
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू।
पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू।।
|| दोहा-२८ ||
सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस।।
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला।
बिधि के लिखे अंक निज भाला।।
नर कें कर आपन बध बाँची।
हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।।
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें।
लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।।
आन बीर बल सठ मम आगें।
पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे।।
कह अंगद सलज्ज जग माहीं।
रावन तोहि समान कोउ नाहीं।।
लाजवंत तव सहज सुभाऊ।
निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।।
सिर अरु सैल कथा चित रही।
ताते बार बीस तैं कही।।
सो भुजबल राखेउ उर घाली।
जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।।
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा।
काटें सीस कि होइअ सूरा।।
इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा।
काटइ निज कर सकल सरीरा।।
|| दोहा-२९ ||
जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद।।
अब जनि बतबढ़ाव खल करही।
सुनु मम बचन मान परिहरही।।
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ।
अस बिचारि रघुबीष पठायउँ।।
बार बार अस कहइ कृपाला।
नहिं गजारि जसु बधें सृकाला।।
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे।
सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे।।
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा।
लै जातेउँ सीतहि बरजोरा।।
जानेउँ तव बल अधम सुरारी।
सूनें हरि आनिहि परनारी।।
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता।
मैं रघुपति सेवक कर दूता।।
जौं न राम अपमानहि डरउँ।
तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।।
|| दोहा-३० ||
तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ।।
जौ अस करौं तदपि न बड़ाई।
मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई।।
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।।
सदा रोगबस संतत क्रोधी।
बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी।।
तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवन सव सम चौदह प्रानी।।
अस बिचारि खल बधउँ न तोही।
अब जनि रिस उपजावसि मोही।।
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा।
अधर दसन दसि मीजत हाथा।।
रे कपि अधम मरन अब चहसी।
छोटे बदन बात बड़ि कहसी।।
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें।
बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।।
|| दोहा-३१ क , ख ||
अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास।।
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक।।
जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा।
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना।।
कटकटान कपिकुंजर भारी।
दुहु भुजदंड तमकि महि मारी।।
डोलत धरनि सभासद खसे।
चले भाजि भय मारुत ग्रसे।।
गिरत सँभारि उठा दसकंधर।
भूतल परे मुकुट अति सुंदर।।
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे।
कछु अंगद प्रभु पास पबारे।।
आवत मुकुट देखि कपि भागे।
दिनहीं लूक परन बिधि लागे।।
की रावन करि कोप चलाए।
कुलिस चारि आवत अति धाए।।
कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू।
लूक न असनि केतु नहिं राहू।।
ए किरीट दसकंधर केरे।
आवत बालितनय के प्रेरे।।
|| दोहा-३२ क,ख ||
तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास।।
उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ।।
एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु।
खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु।।
मर्कटहीन करहु महि जाई।
जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।।
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा।
गाल बजावत तोहि न लाजा।।
मरु गर काटि निलज कुलघाती।
बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती।।
रे त्रिय चोर कुमारग गामी।
खल मल रासि मंदमति कामी।।
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा।
भएसि कालबस खल मनुजादा।।
याको फलु पावहिगो आगें।
बानर भालु चपेटन्हि लागें।।
रामु मनुज बोलत असि बानी।
गिरहिं न तव रसना अभिमानी।।
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं।
सिरन्हि समेत समर महि माहीं।।
|| सोरठा – ३३ क,ख ||
सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़।।
तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम।।
मै तव दसन तोरिबे लायक।
आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।।
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं।
लंका गहि समुद्र महँ बोरौं।।
गूलरि फल समान तव लंका।
बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।।
मैं बानर फल खात न बारा।
आयसु दीन्ह न राम उदारा।।
जुगति सुनत रावन मुसुकाई।
मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई।।
बालि न कबहुँ गाल अस मारा।
मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।।
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा।
जौं न उपारिउँ तव दस जीहा।।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा।
सभा माझ पन करि पद रोपा।।
जौं मम चरन सकसि सठ टारी।
फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।
सुनहु सुभट सब कह दससीसा।
पद गहि धरनि पछारहु कीसा।।
इंद्रजीत आदिक बलवाना।
हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना।।
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई।
पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई।।
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती।
टरइ न कीस चरन एहि भाँती।।
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी।
मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी।।
|| दोहा-३४ क , ख ||
कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ।।
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।।
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग।।
कपि बल देखि सकल हियँ हारे।
उठा आपु कपि कें परचारे।।
गहत चरन कह बालिकुमारा।
मम पद गहें न तोर उबारा।।
गहसि न राम चरन सठ जाई।
सुनत फिरा मन अति सकुचाई।।
भयउ तेजहत श्री सब गई।
मध्य दिवस जिमि ससि सोहई।।
सिंघासन बैठेउ सिर नाई।
मानहुँ संपति सकल गँवाई।।
जगदातमा प्रानपति रामा।
तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।।
उमा राम की भृकुटि बिलासा।
होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई।
तासु दूत पन कहु किमि टरई।।
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना।
मान न ताहि कालु निअराना।।
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो।
यह कहि चल्यो बालि नृप जायो।।
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई।
तोहि अबहिं का करौं बड़ाई।।
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा।
सो सुनि रावन भयउ दुखारा।।
जातुधान अंगद पन देखी।
भय ब्याकुल सब भए बिसेषी।।
|| दोहा- ३५ क , ख ||
रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज।।
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ।।
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही।
सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।
रामानुज लघु रेख खचाई।
सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा।
जाके दूत केर यह कामा।।
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका।
आयउ कपि केहरी असंका।।
रखवारे हति बिपिन उजारा।
देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा।
कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।
अब पति मृषा गाल जनि मारहु।
मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु।
अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।
बान प्रताप जान मारीचा।
तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।।
जनक सभाँ अगनित भूपाला।
रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला।।
भंजि धनुष जानकी बिआही।
तब संग्राम जितेहु किन ताही।।
सुरपति सुत जानइ बल थोरा।
राखा जिअत आँखि गहि फोरा।।
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी।
तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी।।
|| दोहा- ३६ ||
बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध।।
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला।
उतरे प्रभु दल सहित सुबेला।।
कारुनीक दिनकर कुल केतू।
दूत पठायउ तव हित हेतू।।
सभा माझ जेहिं तव बल मथा।
करि बरूथ महुँ मृगपति जथा।।
अंगद हनुमत अनुचर जाके।
रन बाँकुरे बीर अति बाँके।।
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू।
मुधा मान ममता मद बहहू।।
अहह कंत कृत राम बिरोधा।
काल बिबस मन उपज न बोधा।।
काल दंड गहि काहु न मारा।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।
निकट काल जेहि आवत साईं।
तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।।
|| दोहा-३७ ||
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु।।
नारि बचन सुनि बिसिख समाना।
सभाँ गयउ उठि होत बिहाना।।
बैठ जाइ सिंघासन फूली।
अति अभिमान त्रास सब भूली।।
इहाँ राम अंगदहि बोलावा।
आइ चरन पंकज सिरु नावा।।
अति आदर सपीप बैठारी।
बोले बिहँसि कृपाल खरारी।।
बालितनय कौतुक अति मोही।
तात सत्य कहु पूछउँ तोही।।
रावनु जातुधान कुल टीका।
भुज बल अतुल जासु जग लीका।।
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए।
कहहु तात कवनी बिधि पाए।।
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी।
मुकुट न होहिं भूप गुन चारी।।
साम दान अरु दंड बिभेदा।
नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।।
नीति धर्म के चरन सुहाए।
अस जियँ जानि नाथ पहिं आए।।
|| दोहा-३८ क, ख ||
धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस।।
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार।।
रिपु के समाचार जब पाए।
राम सचिव सब निकट बोलाए।।
लंका बाँके चारि दुआरा।
केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा।।
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन।
सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन।।
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा।
चारि अनी कपि कटकु बनावा।।
जथाजोग सेनापति कीन्हे।
जूथप सकल बोलि तब लीन्हे।।
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए।
सुनि कपि सिंघनाद करि धाए।।
हरषित राम चरन सिर नावहिं।
गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं।।
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा।
जय रघुबीर कोसलाधीसा।।
जानत परम दुर्ग अति लंका।
प्रभु प्रताप कपि चले असंका।।
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी।
मुखहिं निसान बजावहीं भेरी।।
|| दोहा-३९ ||
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव।।
लंकाँ भयउ कोलाहल भारी।
सुना दसानन अति अहँकारी।।
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई।
बिहँसि निसाचर सेन बोलाई।।
आए कीस काल के प्रेरे।
छुधावंत सब निसिचर मेरे।।
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा।
गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा।।
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू।
धरि धरि भालु कीस सब खाहू।।
उमा रावनहि अस अभिमाना।
जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना।।
चले निसाचर आयसु मागी।
गहि कर भिंडिपाल बर साँगी।।
तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा।
सुल कृपान परिघ गिरिखंडा।।
जिमि अरुनोपल निकर निहारी।
धावहिं सठ खग मांस अहारी।।
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा।
तिमि धाए मनुजाद अबूझा।।
|| दोहा-४० ||
नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर।।
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे।
मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे।।
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ।
सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा।
सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा।
अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।।
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा।
पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं।
दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।।
उत रावन इत राम दोहाई।
जयति जयति जय परी लराई।।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं।
कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।।
|| दोहा-४१ ||
धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं।।
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए।।
एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ।।
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा।
मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा।।
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर।
जय रघुबीर प्रताप दिवाकर।।
चले निसाचर निकर पराई।
प्रबल पवन जिमि घन समुदाई।।
हाहाकार भयउ पुर भारी।
रोवहिं बालक आतुर नारी।।
सब मिलि देहिं रावनहि गारी।
राज करत एहिं मृत्यु हँकारी।।
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना।
फेरि सुभट लंकेस रिसाना।।
जो रन बिमुख सुना मैं काना।
सो मैं हतब कराल कृपाना।।
सर्बसु खाइ भोग करि नाना।
समर भूमि भए बल्लभ प्राना।।
उग्र बचन सुनि सकल डेराने।
चले क्रोध करि सुभट लजाने।।
सन्मुख मरन बीर कै सोभा।
तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा।।
|| दोहा-४२ ||
बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी।।
भय आतुर कपि भागन लागे।
जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे।।
कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता।
कहँ नल नील दुबिद बलवंता।।
निज दल बिकल सुना हनुमाना।
पच्छिम द्वार रहा बलवाना।।
मेघनाद तहँ करइ लराई।
टूट न द्वार परम कठिनाई।।
पवनतनय मन भा अति क्रोधा।
गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा।।
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा।
गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा।।
भंजेउ रथ सारथी निपाता।
ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता।।
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना।
स्यंदन घालि तुरत गृह आना।।
|| दोहा-४३ ||
अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल।।
जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर।
राम प्रताप सुमिरि उर अंतर।।
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई।
करहि कोसलाधीस दोहाई।।
कलस सहित गहि भवनु ढहावा।
देखि निसाचरपति भय पावा।।
नारि बृंद कर पीटहिं छाती।
अब दुइ कपि आए उतपाती।।
कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं।
रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं।।
पुनि कर गहि कंचन के खंभा।
कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा।।
गर्जि परे रिपु कटक मझारी।
लागे मर्दै भुज बल भारी।।
काहुहि लात चपेटन्हि केहू।
भजहु न रामहि सो फल लेहू।।
|| दोहा-४४ ||
एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड।।
महा महा मुखिआ जे पावहिं।
ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं।।
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा।
देहिं राम तिन्हहू निज धामा।।
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी।
पावहिं गति जो जाचत जोगी।।
उमा राम मृदुचित करुनाकर।
बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर।।
देहिं परम गति सो जियँ जानी।
अस कृपाल को कहहु भवानी।।
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी।
नर मतिमंद ते परम अभागी।।
अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा।
कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा।।
लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें।
मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसें।।
|| दोहा- ४५ ||
भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत।।
प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए।
देखि सुभट रघुपति मन भाए।।
राम कृपा करि जुगल निहारे।
भए बिगतश्रम परम सुखारे।।
गए जानि अंगद हनुमाना।
फिरे भालु मर्कट भट नाना।।
जातुधान प्रदोष बल पाई।
धाए करि दससीस दोहाई।।
निसिचर अनी देखि कपि फिरे।
जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे।।
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी।
लरत सुभट नहिं मानहिं हारी।।
महाबीर निसिचर सब कारे।
नाना बरन बलीमुख भारे।।
सबल जुगल दल समबल जोधा।
कौतुक करत लरत करि क्रोधा।।
प्राबिट सरद पयोद घनेरे।
लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे।।
अनिप अकंपन अरु अतिकाया।
बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया।।
भयउ निमिष महँ अति अँधियारा।
बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा।।
|| दोहा-४६ ||
देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार।।
सकल मरमु रघुनायक जाना।
लिए बोलि अंगद हनुमाना।।
समाचार सब कहि समुझाए।
सुनत कोपि कपिकुंजर धाए।।
पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा।
पावक सायक सपदि चलावा।।
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं।
ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं।।
भालु बलीमुख पाइ प्रकासा।
धाए हरष बिगत श्रम त्रासा।।
हनूमान अंगद रन गाजे।
हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।
भागत पट पटकहिं धरि धरनी।
करहिं भालु कपि अद्भुत करनी।।
गहि पद डारहिं सागर माहीं।
मकर उरग झष धरि धरि खाहीं।।
|| दोहा-४७ ||
कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ।।
निसा जानि कपि चारिउ अनी।
आए जहाँ कोसला धनी।।
राम कृपा करि चितवा सबही।
भए बिगतश्रम बानर तबही।।
उहाँ दसानन सचिव हँकारे।
सब सन कहेसि सुभट जे मारे।।
आधा कटकु कपिन्ह संघारा।
कहहु बेगि का करिअ बिचारा।।
माल्यवंत अति जरठ निसाचर।
रावन मातु पिता मंत्री बर।।
बोला बचन नीति अति पावन।
सुनहु तात कछु मोर सिखावन।।
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी।
असगुन होहिं न जाहिं बखानी।।
बेद पुरान जासु जसु गायो।
राम बिमुख काहुँ न सुख पायो।।
|| दोहा-४८ क, ख||
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान।।
मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम
कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध।।
परिहरि बयरु देहु बैदेही।
भजहु कृपानिधि परम सनेही।।
ताके बचन बान सम लागे।
करिआ मुह करि जाहि अभागे।।
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही।
अब जनि नयन देखावसि मोही।।
तेहि अपने मन अस अनुमाना।
बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।।
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा।
तब सकोप बोलेउ घननादा।।
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा।
करिहउँ बहुत कहौं का थोरा।।
सुनि सुत बचन भरोसा आवा।
प्रीति समेत अंक बैठावा।।
करत बिचार भयउ भिनुसारा।
लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा।।
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा।
नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।।
बिबिधायुध धर निसिचर धाए।
गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।।
छं0-ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले।।
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए।।
|| दोहा-४९||
मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ।।
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता।
धन्वी सकल लोक बिख्याता।।
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा।
अंगद हनूमंत बल सींवा।।
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही।
आजु सबहि हठि मारउँ ओही।।
अस कहि कठिन बान संधाने।
अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने।।
सर समुह सो छाड़ै लागा।
जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा।।
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर।
सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर।।
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा।
बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।
सो कपि भालु न रन महँ देखा।
कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा।।
|| दोहा-५०||
दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर।।
देखि पवनसुत कटक बिहाला।
क्रोधवंत जनु धायउ काला।।
महासैल एक तुरत उपारा।
अति रिस मेघनाद पर डारा।।
आवत देखि गयउ नभ सोई।
रथ सारथी तुरग सब खोई।।
बार बार पचार हनुमाना।
निकट न आव मरमु सो जाना।।
रघुपति निकट गयउ घननादा।
नाना भाँति करेसि दुर्बादा।।
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे।
कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे।।
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना।
करै लाग माया बिधि नाना।।
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला।
डरपावै गहि स्वल्प सपेला।।
|| दोहा-५१||
जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट।।
नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा।
महि ते प्रगट होहिं जलधारा।।
नाना भाँति पिसाच पिसाची।
मारु काटु धुनि बोलहिं नाची।।
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा।
बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा।।
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा।
सूझ न आपन हाथ पसारा।।
कपि अकुलाने माया देखें।
सब कर मरन बना एहि लेखें।।
कौतुक देखि राम मुसुकाने।
भए सभीत सकल कपि जाने।।
एक बान काटी सब माया।
जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया।।
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके।
भए प्रबल रन रहहिं न रोके।।
|| दोहा-५२||
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।।
छतज नयन उर बाहु बिसाला।
हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला।।
इहाँ दसानन सुभट पठाए।
नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए।।
भूधर नख बिटपायुध धारी।
धाए कपि जय राम पुकारी।।
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।
इत उत जय इच्छा नहिं थोरी।।
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं।
कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं।।
मारु मारु धरु धरु धरु मारू।
सीस तोरि गहि भुजा उपारू।।
असि रव पूरि रही नव खंडा।
धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा।।
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा।
कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा।।
|| दोहा-५२||
रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ।।
घायल बीर बिराजहिं कैसे।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे।।
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।
भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा।।
एकहि एक सकइ नहिं जीती।
निसिचर छल बल करइ अनीती।।
क्रोधवंत तब भयउ अनंता।
भंजेउ रथ सारथी तुरंता।।
नाना बिधि प्रहार कर सेषा।
राच्छस भयउ प्रान अवसेषा।।
रावन सुत निज मन अनुमाना।
संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी।
तेज पुंज लछिमन उर लागी।।
मुरुछा भई सक्ति के लागें।
तब चलि गयउ निकट भय त्यागें।।
|| दोहा-५३||
मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ।।
सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू।
जारइ भुवन चारिदस आसू।।
सक संग्राम जीति को ताही।
सेवहिं सुर नर अग जग जाही।।
यह कौतूहल जानइ सोई।
जा पर कृपा राम कै होई।।
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी।
लगे सँभारन निज निज अनी।।
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर।
लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर।।
तब लगि लै आयउ हनुमाना।
अनुज देखि प्रभु अति दुख माना।।
जामवंत कह बैद सुषेना।
लंकाँ रहइ को पठई लेना।।
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता।
आनेउ भवन समेत तुरंता।।
|| दोहा-५३||
राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन।।
राम चरन सरसिज उर राखी।
चला प्रभंजन सुत बल भाषी।।
उहाँ दूत एक मरमु जनावा।
रावन कालनेमि गृह आवा।।
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना।
पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना।।
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा।
तासु पंथ को रोकन पारा।।
भजि रघुपति करु हित आपना।
छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना।।
नील कंज तनु सुंदर स्यामा।
हृदयँ राखु लोचनाभिरामा।।
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू।
महा मोह निसि सूतत जागू।।
काल ब्याल कर भच्छक जोई।
सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई।।
|| दोहा-५६||
सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार।।
अस कहि चला रचिसि मग माया।
सर मंदिर बर बाग बनाया।।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम।
मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।।
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा।
मायापति दूतहि चह मोहा।।
जाइ पवनसुत नायउ माथा।
लाग सो कहै राम गुन गाथा।।
होत महा रन रावन रामहिं।
जितहहिं राम न संसय या महिं।।
इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई।
ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई।।
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल।
कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल।।
सर मज्जन करि आतुर आवहु।
दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु।।
|| दोहा-५७||
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान।।
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा।
मिटा तात मुनिबर कर सापा।।
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा।
मानहु सत्य बचन कपि मोरा।।
अस कहि गई अपछरा जबहीं।
निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं।।
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू।
पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू।।
सिर लंगूर लपेटि पछारा।
निज तनु प्रगटेसि मरती बारा।।
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना।
सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना।।
देखा सैल न औषध चीन्हा।
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा।।
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ।
अवधपुरी उपर कपि गयऊ।।
|| दोहा-५८||
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।।
परेउ मुरुछि महि लागत सायक।
सुमिरत राम राम रघुनायक।।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।
कपि समीप अति आतुर आए।।
बिकल बिलोकि कीस उर लावा।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा।।
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी।।
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा।।
जौं मोरें मन बच अरु काया।
प्रीति राम पद कमल अमाया।।
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला।।
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।
कहि जय जयति कोसलाधीसा।।
|| सोरठा ५९||
लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक।।
तात कुसल कहु सुखनिधान की।
सहित अनुज अरु मातु जानकी।।
कपि सब चरित समास बखाने।
भए दुखी मन महुँ पछिताने।।
अहह दैव मैं कत जग जायउँ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ।।
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा।।
तात गहरु होइहि तोहि जाता।
काजु नसाइहि होत प्रभाता।।
चढ़ु मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता।।
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।
मोरें भार चलिहि किमि बाना।।
राम प्रभाव बिचारि बहोरी।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी।।
||दोहा-६० क, ख ||
तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।
उहाँ राम लछिमनहिं निहारी।
बोले बचन मनुज अनुसारी।।
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ।
राम उठाइ अनुज उर लायउ।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ।
बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।
मम हित लागि तजेहु पितु माता।
सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई।
उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू।
पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
सुत बित नारि भवन परिवारा।
होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता।
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना।
मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही।
जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई।
नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं।
नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा।
सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।।
निज जननी के एक कुमारा।
तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी।
सब बिधि सुखद परम हित जानी।।
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई।
उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।
बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन।
स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन।।
उमा एक अखंड रघुराई।
नर गति भगत कृपाल देखाई।।
|| सोरठा-६१ ||
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना।
अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।।
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई।
उठि बैठे लछिमन हरषाई।।
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता।
हरषे सकल भालु कपि ब्राता।।
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा।
जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा।।
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ।
अति बिषअद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा।
बिबिध जतन करि ताहि जगावा।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा।
मानहुँ कालु देह धरि बैसा।।
कुंभकरन बूझा कहु भाई।
काहे तव मुख रहे सुखाई।।
कथा कही सब तेहिं अभिमानी।
जेहि प्रकार सीता हरि आनी।।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।
महामहा जोधा संघारे।।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी।
भट अतिकाय अकंपन भारी।।
अपर महोदर आदिक बीरा।
परे समर महि सब रनधीरा।।
||दोहा-६२ ||
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।।
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा।
अब मोहि आइ जगाएहि काहा।।
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना।
भजहु राम होइहि कल्याना।।
हैं दससीस मनुज रघुनायक।
जाके हनूमान से पायक।।
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई।
प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई।।
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक।
सिव बिरंचि सुर जाके सेवक।।
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा।
कहतेउँ तोहि समय निरबहा।।
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई।
लोचन सूफल करौ मैं जाई।।
स्याम गात सरसीरुह लोचन।
देखौं जाइ ताप त्रय मोचन।।
||दोहा-६३ ||
राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक।।
महिष खाइ करि मदिरा पाना।
गर्जा बज्राघात समाना।।
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा।
चला दुर्ग तजि सेन न संगा।।
देखि बिभीषनु आगें आयउ।
परेउ चरन निज नाम सुनायउ।।
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो।
रघुपति भक्त जानि मन भायो।।
तात लात रावन मोहि मारा।
कहत परम हित मंत्र बिचारा।।
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ।
देखि दीन प्रभु के मन भायउँ।।
सुनु सुत भयउ कालबस रावन।
सो कि मान अब परम सिखावन।।
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन।
भयहु तात निसिचर कुल भूषन।।
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर।
भजेहु राम सोभा सुख सागर।।
|| दोहा-६४ ||
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर।।
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन।
आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन।।
नाथ भूधराकार सरीरा।
कुंभकरन आवत रनधीरा।।
एतना कपिन्ह सुना जब काना।
किलकिलाइ धाए बलवाना।।
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर।
कटकटाइ डारहिं ता ऊपर।।
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा।
करहिं भालु कपि एक एक बारा।।
मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो।
जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो।।
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो।
पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो।।
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता।
घुर्मित भूतल परेउ तुरंता।।
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि।
जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि।।
चली बलीमुख सेन पराई।
अति भय त्रसित न कोउ समुहाई।।
|| दोहा-६५ ||
अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव।।
उमा करत रघुपति नरलीला।
खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला।।
भृकुटि भंग जो कालहि खाई।
ताहि कि सोहइ ऐसि लराई।।
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं।
गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं।।
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा।
सुग्रीवहि तब खोजन लागा।।
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती।
निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती।।
काटेसि दसन नासिका काना।
गरजि अकास चलउ तेहिं जाना।।
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा।
अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा।।
पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना।
जयति जयति जय कृपानिधाना।।
नाक कान काटे जियँ जानी।
फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी।।
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा।
देखत कपि दल उपजी त्रासा।।
|| दोहा-६६ ||
जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह।।
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा।
सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा।।
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई।
जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई।।
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा।
कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा।।
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा।
निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा।।
रन मद मत्त निसाचर दर्पा।
बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा।।
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे।
सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे।।
कुंभकरन कपि फौज बिडारी।
सुनि धाई रजनीचर धारी।।
देखि राम बिकल कटकाई।
रिपु अनीक नाना बिधि आई।।
|| दोहा-६७ ||
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन।।
कर सारंग साजि कटि भाथा।
अरि दल दलन चले रघुनाथा।।
प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा।
रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा।।
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा।
कालसर्प जनु चले सपच्छा।।
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा।
लगे कटन भट बिकट पिसाचा।।
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा।
बहुतक बीर होहिं सत खंडा।।
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं।
उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं।।
लागत बान जलद जिमि गाजहीं।
बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं।।
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं।
धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं।।
|| दोहा-६८ ||
छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच।।
कुंभकरन मन दीख बिचारी।
हति धन माझ निसाचर धारी।।
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा।
कियो मृगनायक नाद गँभीरा।।
कोपि महीधर लेइ उपारी।
डारइ जहँ मर्कट भट भारी।।
आवत देखि सैल प्रभू भारे।
सरन्हि काटि रज सम करि डारे।।।
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक।
छाँड़े अति कराल बहु सायक।।
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं।
जिमि दामिनि घन माझ समाहीं।।
सोनित स्त्रवत सोह तन कारे।
जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे।।
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए।
बिहँसा जबहिं निकट कपि आए।।
|| दोहा-६९ ||
महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस।।
भागे भालु बलीमुख जूथा।
बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा।।
चले भागि कपि भालु भवानी।
बिकल पुकारत आरत बानी।।
यह निसिचर दुकाल सम अहई।
कपिकुल देस परन अब चहई।।
कृपा बारिधर राम खरारी।
पाहि पाहि प्रनतारति हारी।।
सकरुन बचन सुनत भगवाना।
चले सुधारि सरासन बाना।।
राम सेन निज पाछैं घाली।
चले सकोप महा बलसाली।।
खैंचि धनुष सर सत संधाने।
छूटे तीर सरीर समाने।।
लागत सर धावा रिस भरा।
कुधर डगमगत डोलति धरा।।
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी।
रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी।।
धावा बाम बाहु गिरि धारी।
प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी।।
काटें भुजा सोह खल कैसा।
पच्छहीन मंदर गिरि जैसा।।
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका।
ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका।।
|| दोहा-७० ||
करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि।।
सभय देव करुनानिधि जान्यो।
श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो।।
बिसिख निकर निसिचर मुख
भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ।।
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा।
काल त्रोन सजीव जनु आवा।।
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा।
धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा।।
सो सिर परेउ दसानन आगें।
बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें।।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा।
तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा।।
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर।
हेठ दाबि कपि भालु निसाचर।।
तासु तेज प्रभु बदन समाना।
सुर मुनि सबहिं अचंभव माना।।
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं।
अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं।।
करि बिनती सुर सकल सिधाए।
तेही समय देवरिषि आए।।
गगनोपरि हरि गुन गन गाए।
रुचिर बीररस प्रभु मन भाए।।
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए।
राम समर महि सोभत भए।।
|| छन्द
||
संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी।।
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने।।
|| दोहा-७१ ||
निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम।।
दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी।
समर भई सुभटन्ह श्रम घनी।।
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा।
जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा।।
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती।
निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती।।
बहु बिलाप दसकंधर करई।
बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई।।
रोवहिं नारि हृदय हति पानी।
तासु तेज बल बिपुल बखानी।।
मेघनाद तेहि अवसर आयउ।
कहि बहु कथा पिता समुझायउ।।
देखेहु कालि मोरि मनुसाई।
अबहिं बहुत का करौं बड़ाई।।
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ।
सो बल तात न तोहि देखायउँ।।
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना।
चहुँ दुआर लागे कपि नाना।।
इत कपि भालु काल सम बीरा।
उत रजनीचर अति रनधीरा।।
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू।
बरनि न जाइ समर खगकेतू।।
|| दोहा-७२ ||
मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास।।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास।।
सक्ति सूल तरवारि कृपाना।
अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना।।
डारह परसु परिघ पाषाना।
लागेउ बृष्टि करै बहु बाना।।
दस दिसि रहे बान नभ छाई।
मानहुँ मघा मेघ झरि लाई।।
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना।
जो मारइ तेहि कोउ न जाना।।
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं।
देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं।।
अवघट घाट बाट गिरि कंदर।
माया बल कीन्हेसि सर पंजर।।
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर।
सुरपति बंदि परे जनु मंदर।।
मारुतसुत अंगद नल नीला।
कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला।।
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन।
सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन।।
पुनि रघुपति सैं जूझे लागा।
सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा।।
ब्याल पास बस भए खरारी।
स्वबस अनंत एक अबिकारी।।
नट इव कपट चरित कर नाना।
सदा स्वतंत्र एक भगवाना।।
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो।
नागपास देवन्ह भय पायो।।
|| दोहा-७३ ||
गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास।।
चरित राम के सगुन भवानी।
तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी।।
अस बिचारि जे तग्य बिरागी।
रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी।।
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा।
पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा।।
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा।
सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा।।
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही।
लागेसि अधम पचारै मोही।।
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो।
जामवंत कर गहि सोइ धायो।।
मारिसि मेघनाद कै छाती।
परा भूमि घुर्मित सुरघाती।।
पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ।
महि पछारि निज बल देखरायो।।
बर प्रसाद सो मरइ न मारा।
तब गहि पद लंका पर डारा।।
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो।
राम समीप सपदि सो आयो।।
|| दोहा-७४ क, ख ||
खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ।
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ।।
मेघनाद के मुरछा जागी।
पितहि बिलोकि लाज अति लागी।।
तुरत गयउ गिरिबर कंदरा।
करौं अजय मख अस मन धरा।।
इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा।
सुनहु नाथ बल अतुल उदारा।।
मेघनाद मख करइ अपावन।
खल मायावी देव सतावन।।
जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि।
नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि।।
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना।
बोले अंगदादि कपि नाना।।
लछिमन संग जाहु सब भाई।
करहु बिधंस जग्य कर जाई।।
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही।
देखि सभय सुर दुख अति मोही।।
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई।
जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई।।
जामवंत सुग्रीव बिभीषन।
सेन समेत रहेहु तीनिउ जन।।
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन।
कटि निषंग कसि साजि सरासन।।
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा।
बोले घन इव गिरा गँभीरा।।
जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं।
तौ रघुपति सेवक न कहावौं।।
जौं सत संकर करहिं सहाई।
तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई।।
|| दोहा-७५||
रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत।
अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत।।
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा।
आहुति देत रुधिर अरु भैंसा।।
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा।
जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा।।
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई।
लातन्हि हति हति चले पराई।।
लै त्रिसुल धावा कपि भागे।
आए जहँ रामानुज आगे।।
आवा परम क्रोध कर मारा।
गर्ज घोर रव बारहिं बारा।।
कोपि मरुतसुत अंगद धाए।
हति त्रिसूल उर धरनि गिराए।।
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा।
सर हति कृत अनंत जुग खंडा।।
उठि बहोरि मारुति जुबराजा।
हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा।।
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा।
तब धावा करि घोर चिकारा।।
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला।
लछिमन छाड़े बिसिख कराला।।
देखेसि आवत पबि सम बाना।
तुरत भयउ खल अंतरधाना।।
बिबिध बेष धरि करइ लराई।
कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई।।
देखि अजय रिपु डरपे कीसा।
परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा।।
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा।
एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा।।
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा।
सर संधान कीन्ह करि दापा।।
छाड़ा बान माझ उर लागा।
मरती बार कपटु सब त्यागा।।
|| दोहा-७६ ||
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान।।
बिनु प्रयास हनुमान उठायो।
लंका द्वार राखि पुनि आयो।।
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा।
चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा।।
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं।
श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं।।
जय अनंत जय जगदाधारा।
तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा।।
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए।
लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए।।
सुत बध सुना दसानन जबहीं।
मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं।।
मंदोदरी रुदन कर भारी।
उर ताड़न बहु भाँति पुकारी।।
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा।
सकल कहहिं दसकंधर पोचा।।
|| दोहा-७७ ||
तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि।।
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन।
आपुन मंद कथा सुभ पावन।।
पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा।
लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा।।
सुभट बोलाइ दसानन बोला।
रन सन्मुख जा कर मन डोला।।
सो अबहीं बरु जाउ पराई।
संजुग बिमुख भएँ न भलाई।।
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा।
देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा।।
अस कहि मरुत बेग रथ साजा।
बाजे सकल जुझाऊ बाजा।।
चले बीर सब अतुलित बली।
जनु कज्जल कै आँधी चली।।
असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला।।
|| छन्द
||
अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते।।
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने।।
|| दोहा-७८ ||
ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम।।
चलेउ निसाचर कटकु अपारा।
चतुरंगिनी अनी बहु धारा।।
बिबिध भाँति बाहन रथ जाना।
बिपुल बरन पताक ध्वज नाना।।
चले मत्त गज जूथ घनेरे।
प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे।।
बरन बरद बिरदैत निकाया।
समर सूर जानहिं बहु माया।।
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी।
बीर बसंत सेन जनु साजी।।
चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं।
छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं।।
उठी रेनु रबि गयउ छपाई।
मरुत थकित बसुधा अकुलाई।।
पनव निसान घोर रव बाजहिं।
प्रलय समय के घन जनु गाजहिं।।
भेरि नफीरि बाज सहनाई।
मारू राग सुभट सुखदाई।।
केहरि नाद बीर सब करहीं।
निज निज बल पौरुष उच्चरहीं।।
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा।
मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा।।
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई।
अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई।।
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई।
धाए करि रघुबीर दोहाई।।
|| छन्द
||
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते।।
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं।।
|| दोहा-७९ ||
दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि।।
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।
|| दोहा-८० क, ख, ग ||
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज।।
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन।।
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना।
देखत रन नभ चढ़े बिमाना।।
हमहू उमा रहे तेहि संगा।
देखत राम चरित रन रंगा।।
सुभट समर रस दुहु दिसि माते।
कपि जयसील राम बल ताते।।
एक एक सन भिरहिं पचारहिं।
एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं।।
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं।
सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं।।
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं।
गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं।।
निसिचर भट महि गाड़हि भालू।
ऊपर ढारि देहिं बहु बालू।।
बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे।
देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे।।
|| छन्द
||
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं।।
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं।।
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं।।
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही।।
|| दोहा-८१ ||
निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप।।
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर।
सन्मुख चले हूह दै बंदर।।
गहि कर पादप उपल पहारा।
डारेन्हि ता पर एकहिं बारा।।
लागहिं सैल बज्र तन तासू।
खंड खंड होइ फूटहिं आसू।।
चला न अचल रहा रथ रोपी।
रन दुर्मद रावन अति कोपी।।
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा।
मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा।।
चले पराइ भालु कपि नाना।
त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना।।
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई।
यह खल खाइ काल की नाई।।
तेहि देखे कपि सकल पराने।
दसहुँ चाप सायक संधाने।।
|| छन्द
||
संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं।।
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे।।
|| दोहा-८२ ||
निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ।।
रे खल का मारसि कपि भालू।
मोहि बिलोकु तोर मैं कालू।।
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती।
आजु निपाति जुड़ावउँ छाती।।
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा।
लछिमन किए सकल सत खंडा।।
कोटिन्ह आयुध रावन डारे।
तिल प्रवान करि काटि निवारे।।
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा।
स्यंदनु भंजि सारथी मारा।।
सत सत सर मारे दस भाला।
गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला।।
पुनि सत सर मारा उर माहीं।
परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं।।
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी।
छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी।।
|| छन्द
||
सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही।
पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही।।
ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी।।
|| दोहा-८३||
देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर।।
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा।
उठा सँभारि बहुत रिस भरा।।
मुठिका एक ताहि कपि मारा।
परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा।।
मुरुछा गै बहोरि सो जागा।
कपि बल बिपुल सराहन लागा।।
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही।
जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही।।
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो।
देखि दसानन बिसमय पायो।।
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता।
तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता।।
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला।
गई गगन सो सकति कराला।।
पुनि कोदंड बान गहि धाए।
रिपु सन्मुख अति आतुर आए।।
छं0-आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर् यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो।।
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो।।
|| दोहा-८४ ||
उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य।।
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई।
सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई।।
नाथ करइ रावन एक जागा।
सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा।।
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर।
करहिं बिधंस आव दसकंधर।।
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए।
हनुमदादि अंगद सब धाए।।
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका।
पैठे रावन भवन असंका।।
जग्य करत जबहीं सो देखा।
सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा।।
रन ते निलज भाजि गृह आवा।
इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।।
अस कहि अंगद मारा लाता।
चितव न सठ स्वारथ मन राता।।
|| छन्द
||
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं।।
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई।।
|| दोहा-८५ ||
जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस।।
चलत होहिं अति असुभ भयंकर।
बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर।।
भयउ कालबस काहु न माना।
कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना।।
चली तमीचर अनी अपारा।
बहु गज रथ पदाति असवारा।।
प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें।
सलभ समूह अनल कहँ जैंसें।।
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही।
दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही।।
अब जनि राम खेलावहु एही।
अतिसय दुखित होति बैदेही।।
देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना।
उठि रघुबीर सुधारे बाना।
जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे।
सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे।।
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा।
अखिल लोक लोचनाभिरामा।।
कटितट परिकर कस्यो निषंगा।
कर कोदंड कठिन सारंगा।।
|| छन्द
||
सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो।।
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे।।
|| दोहा-८६ ||
सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार।।
एहीं बीच निसाचर अनी।
कसमसात आई अति घनी।
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा।
प्रलयकाल के जनु घन घट्टा।।
बहु कृपान तरवारि चमंकहिं।
जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं।।
गज रथ तुरग चिकार कठोरा।
गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा।।
कपि लंगूर बिपुल नभ छाए।
मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए।।
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा।
बान बुंद भै बृष्टि अपारा।।
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा।
बज्रपात जनु बारहिं बारा।।
रघुपति कोपि बान झरि लाई।
घायल भै निसिचर समुदाई।।
लागत बान बीर चिक्करहीं।
घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं।।
स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी।
सोनित सरि कादर भयकारी।।
|| छन्द
||
कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी।।
जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने।।
|| दोहा-८७ ||
बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन।।
मज्जहि भूत पिसाच बेताला।
प्रमथ महा झोटिंग कराला।।
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं।
एक ते छीनि एक लै खाहीं।।
एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई।
सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई।।
कहँरत भट घायल तट गिरे।
जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे।।
खैंचहिं गीध आँत तट भए।
जनु बंसी खेलत चित दए।।
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं।
जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं।।
जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं।
भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं।।
भट कपाल करताल बजावहिं।
चामुंडा नाना बिधि गावहिं।।
जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं।
खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं।।
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं।
सीस परे महि जय जय बोल्लहिं।।
|| छन्द
||
बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं।।
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए।।
|| दोहा-८८ ||
रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार।।88।।
देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा।
उपजा उर अति छोभ बिसेषा।।
सुरपति निज रथ तुरत पठावा।
हरष सहित मातलि लै आवा।।
तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा।
हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा।।
चंचल तुरग मनोहर चारी।
अजर अमर मन सम गतिकारी।।
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी।
धाए कपि बलु पाइ बिसेषी।।
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी।
तब रावन माया बिस्तारी।।
सो माया रघुबीरहि बाँची।
लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची।।
देखी कपिन्ह निसाचर अनी।
अनुज सहित बहु कोसलधनी।।
|| छन्द ||
बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे।।
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी।।
|| दोहा-८९ ||
बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर।।
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा।
बिप्र चरन पंकज सिरु नावा।।
तब लंकेस क्रोध उर छावा।
गर्जत तर्जत सन्मुख धावा।।
जीतेहु जे भट संजुग माहीं।
सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं।।
रावन नाम जगत जस जाना।
लोकप जाकें बंदीखाना।।
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा।
बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा।।
निसिचर निकर सुभट संघारेहु।
कुंभकरन घननादहि मारेहु।।
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही।
जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं।।
आजु करउँ खलु काल हवाले।
परेहु कठिन रावन के पाले।।
सुनि दुर्बचन कालबस जाना।
बिहँसि बचन कह कृपानिधाना।।
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई।
जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई।।
|| छन्द
||
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा।।
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं।।
|| दोहा-९० ||
राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान।।
कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर।
कुलिस समान लाग छाँड़ै सर।।
नानाकार सिलीमुख धाए।
दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए।।
पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा।
छन महुँ जरे निसाचर तीरा।।
छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई।
बान संग प्रभु फेरि चलाई।।
कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै।
बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै।।
निफल होहिं रावन सर कैसें।
खल के सकल मनोरथ जैसें।।
तब सत बान सारथी मारेसि।
परेउ भूमि जय राम पुकारेसि।।
राम कृपा करि सूत उठावा।
तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा।।
|| छन्द
||
भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे।।
मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे।।
|| दोहा-९१ ||
तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल।।
चले बान सपच्छ जनु उरगा।
प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा।।
रथ बिभंजि हति केतु पताका।
गर्जा अति अंतर बल थाका।।
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना।
अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना।।
बिफल होहिं सब उद्यम ताके।
जिमि परद्रोह निरत मनसा के।।
तब रावन दस सूल चलावा।
बाजि चारि महि मारि गिरावा।।
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक।
खैंचि सरासन छाँड़े सायक।।
रावन सिर सरोज बनचारी।
चलि रघुबीर सिलीमुख धारी।।
दस दस बान भाल दस मारे।
निसरि गए चले रुधिर पनारे।।
स्त्रवत रुधिर धायउ बलवाना।
प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना।।
तीस तीर रघुबीर पबारे।
भुजन्हि समेत सीस महि पारे।।
काटतहीं पुनि भए नबीने।
राम बहोरि भुजा सिर छीने।।
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए।
कटत झटिति पुनि नूतन भए।।
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा।
अति कौतुकी कोसलाधीसा।।
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू।
मानहुँ अमित केतु अरु राहू।।
|| छन्द
||
जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं।।
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं।।
|| दोहा-९२ ||
जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार।।
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी।
बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी।।
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी।
धायउ दसहु सरासन तानी।।
समर भूमि दसकंधर कोप्यो।
बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो।।
दंड एक रथ देखि न परेऊ।
जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ।।
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा।
तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा।।
सर निवारि रिपु के सिर काटे।
ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे।।
काटे सिर नभ मारग धावहिं।
जय जय धुनि करि भय उपजावहिं।।
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा।
कहँ रघुबीर कोसलाधीसा।।
|| छन्द
||
कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले।।
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं।।
|| दोहा-९३||
पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड।।
आवत देखि सक्ति अति घोरा।
प्रनतारति भंजन पन मोरा।।
तुरत बिभीषन पाछें मेला।
सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला।।
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई।
प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई।।
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो।
गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो।।
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे।
तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे।।
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए।
एक एक के कोटिन्ह पाए।।
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो।
अब तव कालु सीस पर नाच्यो।।
राम बिमुख सठ चहसि संपदा।
अस कहि हनेसि माझ उर गदा।।
|| छन्द
||
उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो।
दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर् यो।।
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै।।
|| दोहा-९४ ||
उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ।।
देखा श्रमित बिभीषनु भारी।
धायउ हनूमान गिरि धारी।।
रथ तुरंग सारथी निपाता।
हृदय माझ तेहि मारेसि लाता।।
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता।
गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता।।
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी।
चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी।।
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना।
पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना।।
लरत अकास जुगल सम जोधा।
एकहि एकु हनत करि क्रोधा।।
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं।
कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं।।
बुधि बल निसिचर परइ न पार् यो।
तब मारुत सुत प्रभु संभार् यो।।
|| छन्द
||
संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो।।
हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले।।
|| दोहा-९५ ||
तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड।।
अंतरधान भयउ छन एका।
पुनि प्रगटे खल रूप अनेका।।
रघुपति कटक भालु कपि जेते।
जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते।।
देखे कपिन्ह अमित दससीसा।
जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा।।
भागे बानर धरहिं न धीरा।
त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा।।
दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन।
गर्जहिं घोर कठोर भयावन।।
डरे सकल सुर चले पराई।
जय कै आस तजहु अब भाई।।
सब सुर जिते एक दसकंधर।
अब बहु भए तकहु गिरि कंदर।।
रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी।
जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी।।
|| छन्द
||
जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे।।
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे।।
|| दोहा-९६ ||
सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस।।
प्रभु छन महुँ माया सब काटी।
जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी।।
रावनु एकु देखि सुर हरषे।
फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे।।
भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे।
फिरे एक एकन्ह तब टेरे।।
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए।
तरल तमकि संजुग महि आए।।
अस्तुति करत देवतन्हि देखें।
भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें।।
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल।
अस कहि कोपि गगन पर धायल।।
हाहाकार करत सुर भागे।
खलहु जाहु कहँ मोरें आगे।।
देखि बिकल सुर अंगद धायो।
कूदि चरन गहि भूमि गिरायो।।
|| छन्द ||
गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो।।
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई।।
|| दोहा-९७ ||
तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप।।
सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी।
भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी।।
मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा।
धाए कोपि भालु भट कीसा।।
बालितनय मारुति नल नीला।
बानरराज दुबिद बलसीला।।
बिटप महीधर करहिं प्रहारा।
सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा।।
एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी।
भअगि चलहिं एक लातन्ह मारी।।
तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ।
नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ।।
रुधिर देखि बिषाद उर भारी।
तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी।।
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं।
जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं।।
कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी।
महि पटकत भजे भुजा मरोरी।।
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे।
सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे।।
हनुमदादि मुरुछित करि बंदर।
पाइ प्रदोष हरष दसकंधर।।
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा।
जामवंत धायउ रनधीरा।।
संग भालु भूधर तरु धारी।
मारन लगे पचारि पचारी।।
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना।
गहि पद महि पटकइ भट नाना।।
देखि भालुपति निज दल घाता।
कोपि माझ उर मारेसि लाता।।
|| छन्द
||
उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा।।
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ।
निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो।।
|| दोहा-९८ ||
मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास।।
मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम
तेही निसि सीता पहिं जाई।
त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई।।
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी।
सीता उर भइ त्रास घनेरी।।
मुख मलीन उपजी मन चिंता।
त्रिजटा सन बोली तब सीता।।
होइहि कहा कहसि किन माता।
केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता।।
रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई।
बिधि बिपरीत चरित सब करई।।
मोर अभाग्य जिआवत ओही।
जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही।।
जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा।
अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा।।
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए।
लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए।।
रघुपति बिरह सबिष सर भारी।
तकि तकि मार बार बहु मारी।।
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना।
सोइ बिधि ताहि जिआव न आना।।
बहु बिधि कर बिलाप जानकी।
करि करि सुरति कृपानिधान की।।
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी।
उर सर लागत मरइ सुरारी।।
प्रभु ताते उर हतइ न तेही।
एहि के हृदयँ बसति बैदेही।।
|| छन्द
||
एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है।।
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा।।
|| दोहा-९९ ||
काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान।।
अस कहि बहुत भाँति समुझाई।
पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई।।
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही।
उपजी बिरह बिथा अति तेही।।
निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती।
जुग सम भई सिराति न राती।।
करति बिलाप मनहिं मन भारी।
राम बिरहँ जानकी दुखारी।।
जब अति भयउ बिरह उर दाहू।
फरकेउ बाम नयन अरु बाहू।।
सगुन बिचारि धरी मन धीरा।
अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा।।
इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा।
निज सारथि सन खीझन लागा।।
सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही।
धिग धिग अधम मंदमति तोही।।
तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा।
भौरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा।।
सुनि आगवनु दसानन केरा।
कपि दल खरभर भयउ घनेरा।।
जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी।
धाए कटकटाइ भट भारी।।
|| छन्द ||
धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा।।
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो।।
|| दोहा-१०० ||
देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार।।
|| छन्द
||
जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड।।
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच।।१।।
जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल।।
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान।।२।।
धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर।।
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान।।३।।
जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि।।
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु।।४।।
जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस।।
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत।।५।।
हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ।।
एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि।।६।।
प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान।।
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ।।७।।
मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ।।
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज।।८।।
|| छन्द ||
तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही।।
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी।।१।।
माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे।।
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं।।२।।
|| दोहा-१०१ क, ख ||
ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास।।
काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस।।
काटत बढ़हिं सीस समुदाई।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।।
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा।
राम बिभीषन तन तब देखा।।
उमा काल मर जाकीं ईछा।
सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा।।
सुनु सरबग्य चराचर नायक।
प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक।।
नाभिकुंड पियूष बस याकें।
नाथ जिअत रावनु बल ताकें।।
सुनत बिभीषन बचन कृपाला।
हरषि गहे कर बान कराला।।
असुभ होन लागे तब नाना।
रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना।।
बोलहि खग जग आरति हेतू।
प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू।।
दस दिसि दाह होन अति लागा।
भयउ परब बिनु रबि उपरागा।।
मंदोदरि उर कंपति भारी।
प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी।।
|| छन्द
||
प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही।।
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए।।
|| दोहा-१०२ ||
खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस।।
सायक एक नाभि सर सोषा।
अपर लगे भुज सिर करि रोषा।।
लै सिर बाहु चले नाराचा।
सिर भुज हीन रुंड महि नाचा।।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा।
तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।।
गर्जेउ मरत घोर रव भारी।
कहाँ रामु रन हतौं पचारी।।
डोली भूमि गिरत दसकंधर।
छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर।।
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई।
चापि भालु मर्कट समुदाई।।
मंदोदरि आगें भुज सीसा।
धरि सर चले जहाँ जगदीसा।।
प्रबिसे सब निषंग महु जाई।
देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई।।
तासु तेज समान प्रभु आनन।
हरषे देखि संभु चतुरानन।।
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा।
जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा।।
बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा।
जय कृपाल जय जयति मुकुंदा।।
|| छन्द
||
जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो।।
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही।।
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं।।
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने।।
|| दोहा-१०३ ||
कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद।।
पति सिर देखत मंदोदरी।
मुरुछित बिकल धरनि खसि परी।।
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं।
तेहि उठाइ रावन पहिं आई।।
पति गति देखि ते करहिं पुकारा।
छूटे कच नहिं बपुष सँभारा।।
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना।
रोवत करहिं प्रताप बखाना।।
तव बल नाथ डोल नित धरनी।
तेज हीन पावक ससि तरनी।।
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा।
सो तनु भूमि परेउ भरि छारा।।
बरुन कुबेर सुरेस समीरा।
रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा।।
भुजबल जितेहु काल जम साईं।
आजु परेहु अनाथ की नाईं।।
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई।
सुत परिजन बल बरनि न जाई।।
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा।
रहा न कोउ कुल रोवनिहारा।।
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा।
सभय दिसिप नित नावहिं माथा।।
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं।
राम बिमुख यह अनुचित नाहीं।।
काल बिबस पति कहा न माना।
अग जग नाथु मनुज करि जाना।।
|| छन्द
||
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं।।
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं।।
|| दोहा-१०४ ||
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान।।
मंदोदरी बचन सुनि काना।
सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना।।
अज महेस नारद सनकादी।
जे मुनिबर परमारथबादी।।
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी।
प्रेम मगन सब भए सुखारी।।
रुदन करत देखीं सब नारी।
गयउ बिभीषनु मन दुख भारी।।
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा।
तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा।।
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो।
बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो।।
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका।
करहु क्रिया परिहरि सब सोका।।
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी।
बिधिवत देस काल जियँ जानी।।
|| दोहा-१०५ ||
मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि।
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि।।
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो।
कृपासिंधु तब अनुज बोलायो।।
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला।
जामवंत मारुति नयसीला।।
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।
सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा।।
पिता बचन मैं नगर न आवउँ।
आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ।।
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना।
कीन्ही जाइ तिलक की रचना।।
सादर सिंहासन बैठारी।
तिलक सारि अस्तुति अनुसारी।।
जोरि पानि सबहीं सिर नाए।
सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए।।
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे।
कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे।।
|| छन्द
||
किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो।।
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं।।
|| दोहा-१०६ ||
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज।।
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना।
लंका जाहु कहेउ भगवाना।।
समाचार जानकिहि सुनावहु।
तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु।।
तब हनुमंत नगर महुँ आए।
सुनि निसिचरी निसाचर धाए।।
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही।
जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही।।
दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा।
रघुपति दूत जानकीं चीन्हा।।
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता।
कुसल अनुज कपि सेन समेता।।
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा।
मातु समर जीत्यो दससीसा।।
अबिचल राजु बिभीषन पायो।
सुनि कपि बचन हरष उर छायो।।
|| छन्द
||
अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा।।
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं।।
|| दोहा-१०७ ||
सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत।।
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता।
देखौं नयन स्याम मृदु गाता।।
तब हनुमान राम पहिं जाई।
जनकसुता कै कुसल सुनाई।।
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन।
बोलि लिए जुबराज बिभीषन।।
मारुतसुत के संग सिधावहु।
सादर जनकसुतहि लै आवहु।।
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता।
सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता।।
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो।
तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो।।
बहु प्रकार भूषन पहिराए।
सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए।।
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही।
सुमिरि राम सुखधाम सनेही।।
बेतपानि रच्छक चहुँ पासा।
चले सकल मन परम हुलासा।।
देखन भालु कीस सब आए।
रच्छक कोपि निवारन धाए।।
कह रघुबीर कहा मम मानहु।
सीतहि सखा पयादें आनहु।।
देखहुँ कपि जननी की नाईं।
बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई।।
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे।
नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे।।
सीता प्रथम अनल महुँ राखी।
प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी।।
|| दोहा-१०८ ||
तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद।।
प्रभु के बचन सीस धरि सीता।
बोली मन क्रम बचन पुनीता।।
लछिमन होहु धरम के नेगी।
पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी।।
सुनि लछिमन सीता कै बानी।
बिरह बिबेक धरम निति सानी।।
लोचन सजल जोरि कर दोऊ।
प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ।।
देखि राम रुख लछिमन धाए।
पावक प्रगटि काठ बहु लाए।।
पावक प्रबल देखि बैदेही।
हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही।।
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं।
तजि रघुबीर आन गति नाहीं।।
तौ कृसानु सब कै गति जाना।
मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना।।
|| छन्द
||
श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली।।
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे।।१।।
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो।।
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली।।२।।
|| दोहा-१०९ क, ख ||
बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान।।
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार।।
तब रघुपति अनुसासन पाई।
मातलि चलेउ चरन सिरु नाई।।
आए देव सदा स्वारथी।
बचन कहहिं जनु परमारथी।।
दीन बंधु दयाल रघुराया।
देव कीन्हि देवन्ह पर दाया।।
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी।
निज अघ गयउ कुमारगगामी।।
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी।
सदा एकरस सहज उदासी।।
अकल अगुन अज अनघ अनामय।
अजित अमोघसक्ति करुनामय।।
मीन कमठ सूकर नरहरी।
बामन परसुराम बपु धरी।।
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो।
नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो।।
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही।
काम लोभ मद रत अति कोही।।
अधम सिरोमनि तव पद पावा।
यह हमरे मन बिसमय आवा।।
हम देवता परम अधिकारी।
स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।।
भव प्रबाहँ संतत हम परे।
अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे।।
|| दोहा-११० ||
करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि।।
|| छन्द
||
जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो।।
तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी।।
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा।।
जन रंजन भंजन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं।।
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा।।
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा।।
गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं।।
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं।।
बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं।।
भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं।।
सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जरजारुन लोचन भूपबरं।।
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं।।
अनवद्य अखंड न गोचर गो। सबरूप सदा सब होइ न गो।।
इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा।।
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तवानन सादर ए।।
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे।।
अब दीन दयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ।।
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।।
खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा।।
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं।।
|| दोहा-१११ ||
बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात।।
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए।
तनय बिलोकि नयन जल छाए।।
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा।
आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ।
जीत्यों अजय निसाचर राऊ।।
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी।
नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।।
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना।
चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो।
दसरथ भेद भगति मन लायो।।
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं।
तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं।।
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा।
दसरथ हरषि गए सुरधामा।।
|| दोहा-११२ ||
अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।।
|| छन्द
||
जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।१।।
जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल सनाथ।।२।।
जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार।।
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल।।३।।
लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब।।
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब कें लाग।।४।।
परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट।।
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल।।५।।
मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान।।
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज।।६।।
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव।।
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप।।७।।
बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत।।
मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास।।८।।
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं।।
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं।।
|| दोहा-११३ ||
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल।।
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे।
परे भूमि निसचरन्हि जे मारे।।
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना।
सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी।
अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी।।
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई।
केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई।।
सुधा बरषि कपि भालु जिआए।
हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए।।
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर।
जिए भालु कपि नहिं रजनीचर।।
रामाकार भए तिन्ह के मन।
मुक्त भए छूटे भव बंधन।।
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा।
जिए सकल रघुपति कीं ईछा।।
राम सरिस को दीन हितकारी।
कीन्हे मुकुत निसाचर झारी।।
खल मल धाम काम रत रावन।
गति पाई जो मुनिबर पाव न।।
|| दोहा-११४ क, ख ||
सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान।।
परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि।।
|| छन्द
||
मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।
मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन।।1।।
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर।।
काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन।।2।।
बिषय मनोरथ पुंज कंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन।।
भव बारिधि मंदर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर।।3।।
स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन।।
अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर।।4।।
मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन।।5।।
|| दोहा-११५ ||
नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार।।
करि बिनती जब संभु सिधाए।
तब प्रभु निकट बिभीषनु आए।।
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी।
बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी।।
सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो।
पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो।।
दीन मलीन हीन मति जाती।
मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती।।
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे।
मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे।।
देखि कोस मंदिर संपदा।
देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा।।
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ।
पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ।।
सुनत बचन मृदु दीनदयाला।
सजल भए द्वौ नयन बिसाला।।
|| दोहा-११६ क, ख, ग, घ ||
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात।।
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि।।
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर।।
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं।।
सुनत बिभीषन बचन राम के।
हरषि गहे पद कृपाधाम के।।
बानर भालु सकल हरषाने।
गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने।।
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो।
मनि गन बसन बिमान भरायो।।
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा।
हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा।।
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन।
गगन जाइ बरषहु पट भूषन।।
नभ पर जाइ बिभीषन तबही।
बरषि दिए मनि अंबर सबही।।
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं।
मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।।
हँसे रामु श्री अनुज समेता।
परम कौतुकी कृपा निकेता।।
|| दोहा-११७ क, ख ||
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद।।
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम।।
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए।
पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए।।
नाना जिनस देखि सब कीसा।
पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा।।
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया।
बोले मृदुल बचन रघुराया।।
तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो।
तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो।।
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू।
सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू।।
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर।
जोरि पानि बोले सब सादर।।
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा।
हमरे होत बचन सुनि मोहा।।
दीन जानि कपि किए सनाथा।
तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा।।
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं।
मसक कहूँ खगपति हित करहीं।।
देखि राम रुख बानर रीछा।
प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा।।
|| दोहा-११८ क, ख, ग ||
प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि।।
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान।।
कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि।।
अतिसय प्रीति देख रघुराई।
लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई।।
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो।
उत्तर दिसिहि बिमान चलायो।।
चलत बिमान कोलाहल होई।
जय रघुबीर कहइ सबु कोई।।
सिंहासन अति उच्च मनोहर।
श्री समेत प्रभु बैठै ता पर।।
राजत रामु सहित भामिनी।
मेरु सृंग जनु घन दामिनी।।
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर।
कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर।।
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी।
सागर सर सरि निर्मल बारी।।
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा।
मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा।।
कह रघुबीर देखु रन सीता।
लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता।।
हनूमान अंगद के मारे।
रन महि परे निसाचर भारे।।
कुंभकरन रावन द्वौ भाई।
इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई।।
|| दोहा-११९ क, ख ||
इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम।।
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम।।
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा।
दंडक बन जहँ परम सुहावा।।
कुंभजादि मुनिनायक नाना।
गए रामु सब कें अस्थाना।।
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा।
चित्रकूट आए जगदीसा।।
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा।
चला बिमानु तहाँ ते चोखा।।
बहुरि राम जानकिहि देखाई।
जमुना कलि मल हरनि सुहाई।।
पुनि देखी सुरसरी पुनीता।
राम कहा प्रनाम करु सीता।।
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा।
निरखत जन्म कोटि अघ भागा।।
देखु परम पावनि पुनि बेनी।
हरनि सोक हरि लोक निसेनी।।
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि।
त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि।।।
|| दोहा-१२० क, ख ||
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम।।
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह।।
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई।
धरि बटु रूप अवधपुर जाई।।
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु।
समाचार लै तुम्ह चलि आएहु।।
तुरत पवनसुत गवनत भयउ।
तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ।।
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही।
अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही।।
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी।
चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी।।
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए।
नाव नाव कहँ लोग बोलाए।।
सुरसरि नाघि जान तब आयो।
उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो।।
तब सीताँ पूजी सुरसरी।
बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी।।
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा।
सुंदरि तव अहिवात अभंगा।।
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल।
आयउ निकट परम सुख संकुल।।
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही।
परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही।।
प्रीति परम बिलोकि रघुराई।
हरषि उठाइ लियो उर लाई।।
|| छन्द
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लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते।।१।।
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो।।
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा।।२।।
|| दोहा-१२१ क, ख ||
समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार।।
मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
इति
श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
षष्ठः सोपानः समाप्तः।