|| श्रीरामचरितमानस ||
|| ॐ श्रीपरमात्मने नमः ||
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन |
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धार ||
|| किष्किन्धाकाण्ड ||
|| दोहा ||
बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ, सो तनु बरनि न जाइ |
उभय घरी महँ दीन्हीं, सात प्रदच्छिन धाइ ||२१||
|| चोपाई ||
अंगद कहइ जाऊँ मैं पारा |
जियँ संसय कछु फिरती बारा ||
जामवंत कह तुम्ह सब लायक |
पठइअ किमि सबही कर नायक ||
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना |
का चुप साधि रहेहु बलवाना ||
पवन तनय बल पवन समाना |
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ||
कवन सो काज कठिन जग माहीं |
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ||
राम काज लगि तव अवतारा |
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा ||
कनक बरन तन तेज बिराजा |
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा ||
सिंहनाद करि बारहिं बारा |
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा ||
सहित सहाय रावनहि मारी |
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ||
जामवंत मैं पूँछउँ तोही |
उचित सिखावनु दीजहु मोही ||
एतना करहु तात तुम्ह जाई |
सीतहि देखि कहहु सुधि आई ||
तब निज भुज बल राजिवनैना |
कौतुक लागि संग कपि सेना ||
छं० --- कपि सेन संग संघारि निसिचर
रामु सीतहि आनिहैं |
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि
नारदादि बखानिहैं ||
जो सुनत गावं कहत समुझत
परम पद नर पावई |
रघुवीर पद पाथोज मधुकर
दास तुलसी गावई ||
|| दोहा ||
भव भेषज रघुनाथ जसु, सुनहिं जे नर अरु नारि |
तिन्ह कर सकल मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ||३०(क) ||
[ सोरठा ३० ( ख ) ]
नीलोत्पल तन श्याम काम कोटि सोभा अधिक |
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ||
श्री रामचरिनसतमा का पंचम सोपान
|| सुन्दरकाण्ड ||
जामवंत के बचन सुहाए |
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ||
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई |
सहि दुख कंद मूल फल खाई ||
जब लगि आवौं सीतहि देखी |
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ||
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा |
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ||
सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर |
कौतुक कुदि चढ़ेउ ता ऊपर ||
बार बार रघुबीर सांभरी |
तरकेउ पवनतनय बल भारी ||
जेहिं गिरि चरण देइ हनुमंता |
चलेउ सो गा पाताल तुरंता ||
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना |
एही भाँती चलेउ हनुमाना ||
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी |
तैं मैनाक होहि श्रम हारी ||
|| दोहा ||
हनुमान तेहि परसा, कर पुनि कीन्ह प्रनाम |
राम काजु किन्हें बिनु, मोहि कहाँ विश्राम ||१||
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ||
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता |
पठइन्हि आई कही तेहिं बाता ||
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा |
सुनत बचन कह पवनकुमारा ||
राम काजु करि फिरि मैं आवौं |
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ||
तब तव बदन पैठिहउँ आई |
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ||
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना |
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ||
जोजन भरि तेहिं बदनु पसरा |
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ||
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ |
तुरत पावनसुत बत्तीस भयऊ ||
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा |
तासु दून कपि रूप देखावा ||
सत जीजन तेहिं आनन कीन्हा |
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ||
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा |
मागा बिदा ताहि लागि पठावा ||
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा |
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ||
|| दोहा ||
राम काजु सबु करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान |
आसिष देइ गई सो, हरषि चलेउ हनुमान ||२||
|| चोपाई ||
निसिचरी एक सिंधु महुँ रहाई |
करि माया नभु के खग गहई ||
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं |
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ||
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई |
एक बिधि सदा गगनचर खाई ||
सोइ छल हनुमान कहँ कीन्हा |
तासु कपटु कपि तुरतहिं चिन्हा ||
ताहि मारि मारुतसुत बीरा |
बारिधि पार गयउ मतिधीरा ||
तहाँ जाइ देखी बन सोभा |
गुंजत चंचरीक मधु लोभा ||
नाना तरु फल फूल सुहाए |
खग मृग बृंद देखि मन भाए ||
सैल बिसाल देखि एक आगें |
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ||
उमा न कछु कपि कै अधिकाई|
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ||
गिरि पर चढ़ी लंका तेहिं देखी |
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ||
अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा |
कनक कोट कर परम प्रकासा ||
|| छन्द ||
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना |
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ||
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै |
बहुरूप निसिचार जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ||१||
बन बाग़ उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं |
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ||
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहिं |
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ||२||
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँदिसि रच्छहीं |
कहुँ महिष मानुष धेनु खर आज खल निसाचर भच्छहीं ||
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही |
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ||३||
|| दोहा ||
पुर रखवारे देखि बहु, कपि मन कीन्ह बिचार |
अति लघु रूप धरौं निसि, नगर करौं पइसार ||३||
|| चोपाई ||
मसक सामान रूप कपि धरी |
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ||
नाम लंकिनी एक निसिचरी |
सो कह चलेसि मोहि निंदरी ||
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा |
मोर अहार जहाँ लगि चोरा ||
मुठिका एक महा कपि हानी |
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ||
पुनि संभारि उठी सो लंका |
जोरि पानी कर बिनय ससंका ||
जब रावनहि ब्रह्रम बर दीन्हा |
चलन बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ||
बिकल होसि तैं कपि के मारे |
तब जानेसु निसिचर संघारे ||
तात मोर अति पुन्य बहुता |
देखेउँ नयन राम कर दुता ||
|| दोहा ||
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग |
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ||४||
|| चोपाई ||
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा |
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ||
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई |
गोपद सिंधु अनल सितलाई ||
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही |
राम कृपा करि चितवा जाही ||
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना |
पैठा नगर सुमिरि भगवाना ||
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा |
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ||
गयउ दसानन मंदिर माहीं |
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ||
सयन किएँ देखा कपि तेही |
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ||
भवन एक पुनि दीख सुहावा |
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ||
|| दोहा ||
रामायुध अंकित गृह, सोभा बरनि न जाइ |
नव तुलसिका बृंद तहँ, देखि हरष कपिराई ||५||
|| चोपाई ||
लंका निसिचर निकर निवास |
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ||
मन महुँ तरक करैं कपि लगा |
तेहिं समय बिभीषनु जाएगा ||
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा |
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ||
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी |
साधु ते होइ न कारज हानी ||
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए |
सुनत बिभीषन उठी तहँ आए ||
करि प्रणाम पूँछी किसलाई |
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ||
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी |
आयहु मोहि करन बड़भागी ||
|| दोहा ||
तब हनुमन्त कही सब, राम कथा निज नाम |
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गन ग्राम ||६||
|| चोपाई ||
सुनहु पवनसूत रहनि हमारी |
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ||
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा |
करीहन्हि कृपा भानुकुल नाथा ||
तामस तनु कछु साधन नाहीं |
प्रीति न पद सरोज मन माहीं ||
अब मोहि भा भरोस हनुमंता |
बिनु हरिकृपा मिलन्हि नहिं संता ||
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा |
तौं तुम्ह दरसु हठि दीन्हा ||
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती |
करहिं सदा सेवक पर प्रीती ||
कहहु कवन मैं परम कुलीना |
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ||
प्रात लेइ जो नाम हमारा |
तेही दिन ताही न मिलै आहारा ||
|| दोहा ||
अस मैं अधम सखा सुनु, मोहु पर रघुबीर |
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर ||७||
|| चोपाई ||
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी |
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ||
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा |
पावा अनिब्राच्य बिश्रामा ||
पुनि सब कथा बिभीषन कही |
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ||
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता |
देखी चहउँ जानकी माता ||
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई |
चलेउ पवनसुत बिदा कराई ||
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ |
बन असोक सीता रह जहवाँ ||
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रानामा |
बैठेहिं बीति जात निसि जामा ||
क्रस तनु सीस जटा एक बनी |
जपति हृदयँ रघुपति गन श्रेनी ||
|| दोहा ||
निज पद नयन दिएँ मन, राम पद कमल लीं |
परम दुखी भा पवनसुत, देखि जानकी दीन ||८||
|| चोपाई ||
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई |
करइ बिचार करौं का भाई ||
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा |
संग नारी बहु किएँ बनावा ||
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा |
साम दान भय भेद देखावा ||
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी |
मंदोदरी आदि सब रानी ||
तव अनुचरीं कराउँ पन मोरा |
एक बार बिलोकु मम ओरा ||
तृन धरि ओट कहति बैदेही |
सुमिरि अवधपति परम सनेही ||
सुनु दसमुख खाघोत प्रकासा |
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ||
अस मन समुझु कहति जानकी |
खल सुधि नहिं रघुबीर बाण की ||
साठ सुनें हरि आनेहि मोही |
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ||
|| दोहा ||
आपुहि सुनि खघोत सम, रामहि भानु सामान |
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ||९||
|| चोपाई ||
सीता तैं मम कृत अपमाना |
कटिहउँ तव सर कठिन कृपाना ||
नाहिं टी सपदि मानु मम बानी |
सुमुखि होति न त जीवन हानी ||
स्याम सरोज दाम सम सुन्दर |
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ||
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा ||
सुनु साठ अस प्रवान पन मोरा ||
चन्द्रहास हरु मम परितापं |
रघुपति बिरह अनल संजातं ||
सीतल निसित बहसि बर धारा |
कह सीता हरु मम दुख भारा ||
सुनत बचन पुनि मारन धावा |
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ||
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई |
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ||
मास दिवस महुँ कहा न माना |
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ||
|| दोहा ||
भवन गयउ दसकंधर, इहाँ पिसाचिनि बृंद |
सीतहि त्रास देखावहिं, धरहिं रूप बहु मंद ||१०||
|| चोपाई ||
त्रिजटा नाम रच्क्षसी एका |
राम चरन रति निपुन बिबेका ||
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना |
सीतहिं सेइ करहु हित अपना ||
सपनें बानर लंका जारी |
जातुधान सेना सब मारी ||
खर आरूढ़ नगन दससीसा |
मुंडित सिर खंडित बुज बिसा ||
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई |
लंका मनहुँ बिभीषन पाई ||
नगर फिरी रघुबीर दोहाई |
तब प्रभु सीता बोलि पठाई ||
यह सपना मैं कहउँ पुकारी |
होइहि सत्य गएँ दिन चारी ||
तासु बचन सुनि ते सब डरीं |
जनकसुता के चरणन्हि परीं ||
|| दोहा ||
जहँ तहँ गईं सकल तब, सीता कर मन सोच |
मास दिवस बितें मोहि, मारिहि निसिचर पोच ||११||
|| चोपाई ||
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी |
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ||
तजौं देह करू बेगि उपाई |
दुसह बीरहु अब नहिं सहि जाई ||
आनि काठ रचु चिता बनाई |
मातु अनल पुनि देहि लगाईं ||
सत्य करहि मम प्रीति सयानी |
सुनै को श्रवन सूल सम बानी ||
सुनत वचन पद गहि समुझाएसि |
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ||
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी |
अस कहि सो निज भवन सिधारी ||
कहा सीता बिधि भा प्रतिकूला |
मिलिहि न पावक मिटिहि न सुला ||
देखअति प्रगट गगन अंगारा |
अवनि न आवत एकउ तारा ||
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी |
मानहुँ मोहि जानि अति भागी ||
सुनहि बिनय मम बिटप असोका |
सत्य नाम करू हरु मम सोका ||
नूतन किसलय अनल सामा |
देहि अगिनि जनि करहि निदाना ||
देखि परम बिरहाकुल सीता |
सो छन कपिहि कलप सम बिता ||
|| दोहा ||
कपि करी हृदयँ बौछार दीन्हि मुद्रिका डारि तब |
जनु असोक अंगारा दिन्ह हरषि उठ कर गहेउ ||१२||
|| चोपाई ||
तब देखी मुंद्रिका मनोहर |
राम नाम अंकित अति सुन्दर ||
चकित चितव मुदरी पहिचानी |
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ||
जीति को सकइ अजय रघुराई |
माया तें असि रचि नहिं जाइ ||
सीता मन बिचार कर नाना |
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ||
रामचंद्र गुन बरनैं लागा |
सुनतहिं सीता कर दुख भागा ||
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई |
आदिहु तें सब कथा सुनाई ||
श्रवनामृत जेहिं कथा सुनाई |
कही सो प्रगट होति किन भाई ||
तब हनुमंत निकट चलि गयउ |
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ||
राम दूत मैं मातु जानकी |
सत्य सपथ करुनानिधान की ||
यह मुद्रिका मातु मैं आनी |
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ||
नर बानरहि संग कहु कैंसें |
कही कथा भइ संगति जैसें ||
|| दोहा ||
कपि के बचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास |
जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास ||१३||
|| चोपाई ||
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी |
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ||
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना |
भयहु तात मो कहुँ जलजाना ||
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी ||
अनुज सहित सुख भवन खरारी ||
कोमलचित कृपाल रघुराई |
कपि केहि हेतु धरी निठुराई ||
सहज बानि सेवक सुखदायक |
कबहुँक सुरति करत रघुनायक ||
कबहुँ नयन मम सीतल ताता |
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ||
बचनु न आव नयन भरे बारी |
अहह नाथ हौं निपट बिसारी ||
देखि परम बिरहाकुल सीता |
बोला कपि मृदु बचन बिनीता ||
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता |
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ||
जनि जननी मानहु जियँ ऊना |
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ||
|| दोहा ||
रघुपति कर संदेसु अब, सुनु जननी धरि धरी |
अस कहि कपि गदगद भयउ, भरे बिलोचन नीर ||१४||
|| चोपाई ||
कहेउ राम बियोग तव सीता |
मो कहुँ सकल भए बिपरीता ||
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू |
कालनिसा सम निसि ससि भानू ||
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा |
बारिद तपत तेल जनु बरिसा ||
जे हित रहे करात तेइ पीरा |
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ||
कहेहू तें कछु दुख घटि होई |
काहि कहौं यह जान न कोई ||
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा |
जानत प्रिया एकु मनु मोरा ||
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं |
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ||
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही |
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेहि ||
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता |
सुमिरु राम सेवक सुखदाता ||
उर आनहु रघुपति प्रभुताई |
सुनी मम बचन तजहु कदराई ||
|| दोहा ||
निसिचर निकर पतंग सम, रघुपति बाण कृसानु |
जननी हृदयँ धीर धरु,जरे निसाचर जानु ||१५||
|| चोपाई ||
जौं रघुबीर होती सुधि पाई |
करते नहिं बिलबुं रघुराई ||
राम बान रबि उएँ जानकी |
तम बरूथ कहँ जातुधान की ||
अबहीं मातु मैं जाऊँ लवाई |
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ||
कछुक दिवस जननी धरु धीरा |
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ||
निसिचर मारी तोहि लै जैहहिं |
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ||
हैं सूत कपि सब तुम्हहि समाना |
जातुधान अति भट बलवाना ||
मोरें हृदय परम संदेहा |
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ||
कनक भूधराकार सरीरा |
सामान भयंकर अतिबल बीरा ||
सीता मन भरोस तब भयऊ |
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ||
|| दोहा ||
सुनु माता साखामृग, नहिं बल बुध्दि बिसाल |
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि, खाइ परम लघु ब्याल ||१६||
|| चोपाई ||
मन संतोष सुनत कपि बानी |
भगति प्रताप तेज बल सानी ||
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना |
होहु तात बल सील निधाना ||
अजर अमर गुननिधि सूत होहू |
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ||
करहूँ कृपा प्रभु अस सुनि काना |
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ||
बार बार नाएसि पद सीसा |
बोला बचन जोरि कर कीसा ||
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता |
आसिष तव अमोघ बिख्याता ||
सुनहु मातु मोहि अतिसम भूखा |
लागि देखि सुन्दर फल रुखा ||
सुनु सूत करहिं बिपिन रखवारी |
परम सुभट रजनीचर भारी ||
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं |
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ||
|| दोहा ||
देखि बुद्धि बल निपुन कपि, कहेउ जानकीं जाहु |
रघुपति चरन हृदयँ धरि, तात मधुर फल खाहु || १७||
|| चोपाई ||
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा |
फल खाएसि तरु तोरैं लागा ||
रहे तहाँ बहु भट रखवारे |
कछु मारसि कछु जाइ पुकारे ||
नाथ एक आवा कपि भारी |
तेहिं असोक बाटिका उजारी ||
खाएसि फल अरु बिटप उपारे |
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ||
सुनी रावन पठाए भट नाना |
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ||
सब रजनीचर कपि संघारे |
गए पुकारत कछु अधमारे ||
पुनि पठायउ तेहिं अच्छकुमारा |
चला संग लै सुभट अपारा ||
आवत देखि बिटप गहि तर्जा |
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ||
|| दोहा ||
कछु मारेसि कछु मर्देसि, मिलएसि धुरि धुरी |
कछु पुनि जाइ पुकारे, प्रभु मर्कट बल भूरि ||१८||
|| चोपाई ||
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना |
पठएसि मेघनाद बलवाना ||
मारसि जनि सुन बाँधेसु ताहि |
देखिअ कपिहि कहाँ कर आहि ||
चला इंद्रजीत अतुलित जोधा |
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ||
कपि देखा दारुन भट आवा |
कटकटाइ गर्जा अरु धावा ||
अति बिसाल तरु एक उपारा |
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमार ||
रहे महाभट ताके संगा |
गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ||
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा |
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ||
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई |
ताहि एक छन मुरुछा आई ||
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया |
जीति न जाइ प्रभंजन जाया ||
|| दोहा ||
ब्रहृम अस्त्र तेहि साँधा, कपि मन कीन्ह बिचार |
जौं न ब्रह्रमसार मानउँ, महिमा मिटइ अपार ||९९||
|| चोपाई ||
ब्रह्रमबान कपि कहुँ तेहिं मारा |
परतिहुँ बार कटकु संघारा ||
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ |
नागपास बाँधेसि लै गयऊ ||
जासु नाम जपि सुनहु भवानी |
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ||
तासु दूत कि बंध तरु आवा |
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ||
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए |
कौतुक लागि सभाँ सब आए ||
दसमुख सभा दीखि कपि जाई |
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ||
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता |
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ||
देखि प्रताप न कपि मन संका |
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ||
|| दोहा ||
कपिहि बिलोकि दसानन, बिहसा कहि दुर्बाद |
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि, उपजा हृदयँ बिषाद ||२०||
|| चोपाई ||
कह लंकेस कवन तैं कीसा |
केहि कें बल घालेहि बन खीसा ||
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही |
देखउँ अति असंक सठ तोही ||
मारे निसिचर केहिं अपराधा |
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ||
सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाय |
पाइ जासु बल बिरचति माया ||
जाकें बल बिरंचि हरी ईसा |
पालत सृजत हरन दससीसा ||
जा बल सीस धरत सहसानन |
अंडकोस समेत गिरि कानन ||
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता |
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ||
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा |
तेहि समेत नृप दल मद गंजा ||
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली |
बधे सकल अतुलित बलसाली ||
|| दोहा ||
जाके बल लवलेस तें, जितेहु चराचर झारि |
तासु दूत मैं जा करि, हरी आनेहु प्रिय नारि ||२१||
|| चोपाई ||
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई |
सहसबाहु सन परी लराई ||
समर बालि सन करि जसु पावा |
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ||
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा |
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ||
सब कें देह परम प्रिय स्वामी |
मारहिं मोहि कुमारग गामी ||
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे |
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ||
मोहि न कछु बाँधे कह लाजा |
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ||
बिनती कराऊँ जोरि कर रावन |
सुनहु मान तजि मोर सिखावन ||
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी |
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ||
जाकें डर अति काल डेराई |
जो सुर असुर चराचर खाई ||
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै |
मोरे कहें जानकी दीजै ||
|| दोहा ||
प्रनतपाल रघुनायक, करना सिंधु खरारि |
गएँ सरन प्रभु राखिहैं, तव अपराध बिसारि ||२२||
|| चोपाई ||
राम चरण पंकज उर धरहू |
लंका अचल राजु तुम्ह करहू ||
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका |
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ||
राम नाम बिनु गिरा न सोहा |
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ||
बसन हीन नहिं सोह सुरारी |
सब भूषण भूषित बर नारी ||
राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई |
जाइ रही पाई बिनु पाई ||
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं |
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ||
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी |
बिमुख राम त्राता नहिं कोपि ||
संकर सहस बिष्नु अज तोही |
सकहिं न राखी राम कर द्रोही ||
|| दोहा ||
मोहमूल बहु सुल प्रद, त्यागहु तम अभिमान |
भजहु राम रघुनायक,कृपा सिंधु भगवान ||२३||
|| चोपाई ||
जदपि कही कपि अति हित बानी |
भागति बिबेक बिरति नय सानी ||
बोला बिहसि महा अभिमानी |
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ||
मृत्यु निकट आई खल तोही |
लागेसि अधम सिखावन मोही ||
उलटा होइहि कह हनुमाना |
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ||
सुनी कपि बचन बहुत खिसिआना |
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ||
सुनत निसाचर मारन धाए |
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ||
नाइ सीस करि बिनय बहूता |
निति बिरोध न मारिअ दूता ||
आन दंड कछु करिअ गोसाँई |
सबहीं कहा मंत्र भल भाई ||
सुनत बिहसि बोला दसकंधर |
अंग भंग करि पठइअ बन्दर ||
|| दोहा ||
कपि कें ममता पूँछ पर, सबहि कहउँ समुझाइ |
तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ ||२४||
|| चोपाई ||
पुछहीन बानर तहँ जाइहि |
तब साठ निज नाथहि लइ आइहि ||
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई |
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ||
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना |
भइ सहाय सादर जाना ||
जातुधान सुनि रावन बचना |
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ||
रहा न नगर बसन घृत तेला |
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ||
कौतुक कहँ आए पुरबासी |
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ||
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी |
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ||
पावक जरत देखि हनुमंता |
भयउ परम लघुरूप तुंरता ||
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं |
भईं सभीत निसाचर नारीं ||
|| दोहा ||
हरी प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उनचास |
अट्टहास करि गर्जा, कपि बढ़ि लाग अकास ||२५||
|| चोपाई ||
देह बिसाल परम हरुआई |
मंदिर ते मंदिर चढ़ धाई ||
जरई नगर भा लोग बिहाला |
झपट लपट बहु कोटि कराला ||
तात मातु हा सुनिअ पुकारा |
एहिं अवसर को हमहि उबारा ||
हम जो कहा यह कपि नहिं होई |
बानर रूप धरें सुर कोई ||
साधु अवग्या कर फलु ऐसा |
जरइ नगर अनाथ कर जैसा ||
जारा नगरु निमिष एक माहीं |
एक बिभीषन कर गृह नाहीं ||
ताकर दूर अनल जेहिं सिरिजा |
ज़रा न सो तेहि कारन गिरिजा ||
उलटि पलटि लंका सब जारी |
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ||
|| दोहा ||
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम, धरि लघु रूप बहोरि |
जनकसुता कें आगें, ठाढ़ भयउ कर जोरि ||२६||
|| चोपाई ||
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा |
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ||
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ |
हरष समेत पवनसुत लयऊ ||
कहेहु तात अस मोर प्रनामा |
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ||
दीन दयाल बिरिदु संभारी |
हरहु नाथ मम संकट भारी ||
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु |
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ||
मास दिवस महुँ नाथु न आवा |
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ||
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना |
तुम्हहू तात कहत अब जाना ||
तोहि देखि सीतलि भइ छाती |
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ||
|| दोहा ||
जनकसुतहि समुझाइ करि, बहु बिधि धीरजु दीन्ह |
चरन कमल सिरु नाइ कपि, गवनु राम पहिं कीन्ह ||२७||
|| चोपाई ||
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी |
गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा |
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ||
हरषे सब बिलोकि हनुमाना |
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ||
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा |
कीन्हसि रामचंद्र कर काजा ||
मिले सकल अति भए सुखारी |
तलफल मीन पाव जिमि बारी ||
चले हरषि रघुनायक पास |
पूँछत कहत नवल इतिहासा ||
तब मधुबन भीतर सब आए |
अंगद संमत मधु फल खाए ||
रखवारे जब बरजन लागे |
मुष्टि प्रहार हटन सब भागे ||
|| दोहा ||
जाइ पुकारे ते सब, बन उजार जुबराज |
सुनि सुग्रीव हरष कपि, करि आए प्रभु काज ||२८||
|| चोपाई ||
जौं न होति सीता सुधि पाई |
मधुबन के फल सकहिं की खाई ||
एही बिधि मन बिचार कर राजा |
आइ गए कपि सहित समाजा ||
आइ सबन्हि नावा पद सीसा |
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ||
पूँछी कुसल कुसल पद देखी |
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ||
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना |
राखे सकल कपिन्ह के प्राना ||
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ |
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ||
राम कपिन्ह जब आवत देखा |
किएँ काजु मन हरष बिसेषा ||
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई |
परे सकल कपि चरनन्हि जाई ||
|| दोहा ||
प्रीति सहित सब भेटे, रघुपति करुना पुंज |
पूँछी कुसल नाथ अब, कुसल देखि पद कंज ||२९||
|| चोपाई ||
जामवंत कह सुनु रघुराया |
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ||
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर |
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ||
सोइ बिजई विनई गुन सागर |
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ||
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू |
जन्म हमार सुफल भा आजू ||
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी |
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ||
पवनतनय के चरित सुहाए |
जामवंत रघुपतिहि सुनाए ||
सुनत कृपानिधि मन अति भाए |
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ||
कहहु तात केहि भाँति जानकी |
रहति करती रच्छा स्वप्रान की ||
|| दोहा ||
नाम पाहरू दिवस निसि, ध्यान तुम्हार कपाट |
लोचन निज पद जंत्रित, जाहिं प्रान केहिं बाट ||३०||
|| चोपाई ||
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही |
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ||
नाथ जुगल लोचन भरि बारी |
बचन कहे कछु जनककुमारी ||
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना |
दीन बंधु प्रनतारति हरना ||
मन क्रम बचन चारन अनुरागी |
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ||
अवगुन एक मोर मैं माना |
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ||
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा |
निसरत प्रान करन्हि हठि बाधा ||
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा |
स्वास जारइ छन माहीं सरीरा ||
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी |
जरैं न पाव देह बिरहागी ||
सीता कै अति बिपति बिसाला |
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ||
|| दोहा ||
निमिष निमिष करुनानिधि, जाहिं कलप सम बीति |
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ, भुज बल खल दल जीति ||३१||
|| चोपाई ||
सुनि सीता दुख प्रभु सुख आयना |
भरि आए जल राजिव नयना ||
बचन कायँ मन मम गति जाही |
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही | |
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई |
जब तव सुमिरन भजन न होई ||
केतिक बात प्रभु जातुधान की |
रिपुहि जीति आनिबी जानकी ||
सुनु कपि तोहि समान उपकारी |
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ||
प्रति उपकार करौं का तोरा |
सनमुख होइ न सकत मन मोरा ||
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं |
देखेउँ करि बिचार मन माहीं ||
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता |
लोचन नीर पुलक अति गाता ||
|| दोहा ||
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुंमत |
चरन परेउ प्रेमाकुल, त्राहि त्राहि भगवंत ||३२||
|| चोपाई ||
बार बार प्रभु चहइ उठावा |
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ||
प्रभु कर पंकज कपि कैं सीसा |
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ||
सावधान मन करि पुनि संकर |
लागे कहन कथा अति सुन्दर ||
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा |
कर गहि परम निकट बैठावा ||
कहु कपि रावन पालित लंका |
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ||
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना |
बोला बचन बिगत अभिमाना ||
साखामृग कै बड़ि मनुसाई |
साखा तें साखा पर जाई ||
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा |
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ||
सो सब तव प्रताप रघुराई |
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ||
|| दोहा ||
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं, जा पर तुम्ह अनुकूल |
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ||३३||
|| चोपाई ||
नाथ भगति अति सुखदायनी |
देहु कृपा करि अनपायनी ||
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी |
एवमस्तु तब कहेउ भवानी ||
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना |
ताहि भजनु तजि भाव न आना ||
यह संबाद जासु उर आवा |
रघुपति चरन भगति सोइ पावा ||
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा |
जय जय जय कृपाल सुखकंदा ||
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा |
कहा चलैं कर करहु बनावा ||
अब बिलंबु केहि कारन कीजे |
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ||
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी |
नभ तें भवन चले सुर हरषी ||
|| दोहा ||
कपिपति बेगि बोलाए, आए जूथप जूथ |
नाना बरन अतुल बल, बानर भालु बरूथ ||३४||
|| चोपाई ||
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा |
गर्जहिं भालु महाबल कीसा ||
देखी राम सकल कपि सेना |
चितइ कृपा करि राजिव नैना ||
राम कृपा बल पाए कपिंदा |
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ||
हरषि राम तब कीन्ह पयाना |
सगुन भए सुन्दर सुभ नाना ||
जासु सकल मंगलमय कीती |
तासु पयान सगुन यह नीति ||
प्रभु पयान जाना बैदेहीं |
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ||
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई |
असगुन भयउ रावनहि सोई ||
चला कटकु को बरनैं पारा |
गर्जहिं बानर भालु अपारा ||
नख आयुध गिरि पादपधारी |
चले गगन महि इच्छाचारी ||
केहरिनाद भालू कपि करहीं |
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ||
|| छन्द ||
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे |
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ||
कटकटहिं मर्कट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं |
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ||
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई |
गह दसन पुनि पुनि कमठ प्रष्ट कठोर सो किमि सोहई ||
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानी परम सुहावनी |
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ||
|| दोहा ||
एहि बिधि जाइ कृपानिधि, उतरे सागर तीर |
जहँ तहँ लागे खान फल, भालु बिपुल कपि बीर ||३५||
|| चोपाई ||
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका |
जब तें जारी गयउ कपि लंका ||
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा |
नहिं निसिचर कुल केर उबारा ||
जासु दूत बल बरनि न जाई |
तेहि आएं पुर कवन भलाई ||
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी |
मंदोदरी अधिक अकुलानी ||
रहसि जोरि कर पति पग लागी |
बोली बचन नीति रस पागी ||
कंत करष हरि सन परिहरहू |
मोर कहा अति हित हियँ धरहू ||
समुझत जासु दूत कइ करनी |
स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी ||
तासु नारि निज सचिव बोलाई |
पठवहु कंत जो चहहु भलाई ||
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई |
सीता सीत निसा सम आई ||
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें |
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ||
|| दोहा ||
राम बान अहि गन सरिसा निकर निसाचर भेक |
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ||३६||
|| चोपाई ||
श्रवन सूनी सठ ता करि बानी |
बिहसा जगत बिदित अभिमानी ||
सभय सुभाउ नारि कर साचा |
मंगल महुँ भय मन अति काचा ||
जौं आवइ मर्कट कटकाई |
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ||
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा |
तासु नारि सभीत बड़ि हासा ||
अस कहि बिहसि तारि उर लाई |
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ||
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता |
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ||
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई |
सिंधु पार सेना सब आई ||
बूझेसि सचिव मत कहहू |
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ||
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं |
नर बानर केहि लेखे माहीं ||
|| दोहा ||
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस |
राज धर्म तन नीति कर होइ बेगिहीं नास ||३७||
|| चोपाई ||
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई |
अस्तुति करहिं सुनाई सुनाई ||
अवसर जानि बिभीषनु आवा |
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ||
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन |
बोला बचन पाइ अनुसासन ||
जाऊ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता |
मति अनुरूप कहउँ हित ताता ||
जो आपन चाहै कल्याना |
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ||
सो परनारि लिलार गोसाईं |
तजउ चउथि के चाँद कि नाईं ||
चौदह भुवन एक पति होई |
भूतद्रोह निष्टइ नहिं सोई ||
गुन सागर नागर नर जोऊ |
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ||
|| दोहा ||
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ |
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत || ३८||
|| चोपाई ||
तात राम नहिं नर भूपाला |
भुवनेस्वर कालहु कर कला ||
ब्रह्म अनामय अज भगवंता |
ब्यापक अजित अनादि अनंता ||
गो व्दिज धेनु देव हितकारी |
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ||
जन रंजन भंजन खल ब्राता |
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ||
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा |
प्रनतारति भंजन रघुनाथा ||
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही |
भजहु राम बिनु हेतु सनेही ||
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा |
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ||
जासु नाम त्रय ताप नसावन |
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ||
|| दोहा ||
बार बार पद लागउँ बिनय लराउं दससीस |
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ||३९क||
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात |
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात || ३९ख||
|| चोपाई ||
माल्यवंत अति सचिव सयाना |
तासु बचन सुनि अति सुख माना ||
तात अनुज तव निति बिभूषन |
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ||
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ |
दूरी न करहु इहाँ हइ कोऊ ||
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी |
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ||
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं |
नाथ पुरान निगम अस कहहीं ||
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना |
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ||
तव उर कुमति बसी बिपरीता |
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ||
कालराति निसिचर कुल केरी |
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ||
|| दोहा ||
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार |
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ||४०||
|| चोपाई ||
बुध पुरान श्रुति संमत बानी |
कही बिभीषन नीति बखानी ||
सुनत दसानन उठा रिसाई |
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ||
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा |
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ||
कहसि न खल अस को जग माहीं |
भुज बल जाहि जीता मैं नाहीं ||
मम पुर बसि तापसिंह पर प्रीती |
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ||
अस कहि कीन्हिसि चरन प्रहारा |
अनुज गहे पद बारहिं बारा ||
उमा संत कइ इहइ बड़ाई |
मंद करत जो करइ भलाई ||
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा |
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ||
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ |
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ||
|| दोहा ||
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि |
मैं रघुबीर सरन अब जाऊँ देहु जनि खोरि ||४१||
|| चोपाई ||
अस कही चला बिभीषनु जबहीं |
आयूहीन भए सब तबहीं ||
साधु अवग्या तुरत भवानी |
कर कल्यान अखिल कै हानी ||
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा |
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ||
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं |
करत मनोरथ बहु मन माहीं ||
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता |
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ||
जे पद परसि तरी रिषिनारी |
दंडक कानन पावनकारी ||
जे पद जनकसुताँ उर लाए |
कपट कुरंग संग धर धाए ||
हर उर सर सरोज पद जेई |
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ||
|| दोहा ||
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ |
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ||४२||
|| चोपाई ||
एहि बिधि कर्त सप्रेम बिचारा |
आयउ सपदि सिन्धु एहिं पारा ||
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा |
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ||
ताहि राखि कपीस पहिं आए |
समाचार सब ताहि सुनाए ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई |
आवा मिलन दसानन भाई ||
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा |
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ||
जानि न जाइ निसाचर माया |
कामरूप केहि कारन आया ||
भेद हमार लेन सठ आवा |
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ||
सखा निति तुम्ह नीकि बिचारी |
मम पन सरनागत भयहारी ||
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना |
सरनागत बच्छल भगवाना ||
|| दोहा ||
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि |
ते नर पावँर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि ||४३||
|| चोपाई ||
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू |
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ||
सनमुख होइ जीव मोहि जबहिं |
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहिं ||
पापवंत कर सहज सुभाऊ |
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ||
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई |
मोरें सनमुख आव कि सोई ||
निर्मल मन जन सो मोहि पावा |
मोहि कपट छल छिद्र भावा ||
भेद लेन पठवा दससीसा |
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ||
जग महुँ सखा निसाचार जेते |
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ||
जौं सभीत आवा सरनाईं |
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ||
|| दोहा ||
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत |
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ||४४||
|| चोपाई ||
सादर तेहि आगें करि बानर |
चले जहाँ रघुपति करुनाकर ||
दूरिहि ते देखे व्दौ भ्राता |
नयनानंद दान के दाता ||
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी |
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ||
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन |
स्यामल गात प्रनत भय मोचन ||
सिंघ कंध आयत उर सोहा |
आनन अमित मदन मन मोहा ||
नयन नीर पुलकित अति गाता |
मन धरि धीर कही मृदु बाता ||
नाथ दसानन कर मैं भ्राता |
निसिचर बंस जनम सुरत्राता ||
सहज पापप्रिय तामस देहा |
जथा उलूकहि तम पर नेहा ||
|| दोहा ||
श्रवन सुजसु सुनि आयहुँ प्रभु भंजन भव भीर |
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ||४५||
|| चोपाई ||
अस कहि करत दंडवत देखा |
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ||
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा |
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ||
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी |
बोले बचन भगत भयहारी ||
कहु लंकेस सहित परिवारा |
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ||
खल मंडली बसहु दिनु राती |
सखा धरम निबहइ केहि भाँती ||
मैं जानउँ तुम्हारी सब रीती |
अति नय निपुन न भाव अनीती ||
बरु भल बास नरक कर ताता |
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ||
अब पद देखि कुसल रघुराया |
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ||
|| दोहा ||
तब लगि कुसल न जीव कहूँ सपनेहुँ मन बिश्राम |
जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ||४६||
|| चोपाई ||
तब लगी हृदयँ बसत खल नाना |
लोभ मोह मच्छर मद माना ||
जब लगि उर न बसत रघुनाथा |
धरें चाप सायक कटि भाथा ||
ममता तरुन तमी अँधिआरी |
राग व्देष उलूक सुखकारी ||
तब लगि बसति जीव मन माहीं |
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ||
अब मैं कुसल मिटे भय भारे |
देखि राम पद कमल तुम्हारे ||
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला |
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ||
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ |
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ||
जासु रूप मुनि ध्याल न आवा |
तहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ||
|| दोहा ||
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज |
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ||४७||
|| चोपाई ||
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ |
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ||
जौं नर होइ चराचर द्रोही |
आवै सभय सरन तकि मोही ||
तजि मद मोह कपट छल नाना |
कराउँ सघ तेहि साधु समाना ||
जननी जनक बंधु सुत दारा |
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ||
सब कै ममता ताग बटोरी |
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ||
समदरसी इच्छा कछु नाहीं |
हरष सोक भय नहिं मन माहीं ||
अस सज्जन मम उर बस कैसें |
लोभी हृदयँ बसाइ धनु जैसें ||
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें |
धरउँ देह नहिं आन निहोरें ||
|| दोहा ||
सगुन उपासक परहित निरत निति द्रढ़ नेम |
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें व्दिज पद प्रेम ||४८||
|| चोपाई ||
सुनु लंकेस सकल गन तोरें |
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ||
राम बचन सुनि बानर जूथा |
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ||
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी |
नहिं अघात श्रवनामृत जानी ||
पद अंबुज गहि बारहिं बारा |
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ||
सुनहु देव सचराचर स्वामी |
प्रनतपाल उर अंतरजामी ||
उर कछु प्रथम बासना रही |
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ||
अब कृपाल निज भगति पावनी |
देहु सदा सिव मन भवानी ||
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा |
मागा तुरत संधु कर नीरा ||
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं |
मोर दरसु अमोघ जग माहीं ||
अस कहि राम तिलक तेहि सारा |
सुमन ब्रष्ट नभ भई अपारा ||
|| दोहा ||
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड |
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ||४९(क) ||
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ |
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ||४९(ख) ||
|| चोपाई ||
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना |
ते नर पसु बिनु पूंछ बिषाना ||
निज जन जानि ताहि अपनावा |
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ||
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी |
सर्बरूप सब रहित उदासी ||
बोले बचन निति प्रतिपालक |
कारन मनुज दनुज कुल घालक ||
सुनु कपीस लंकापति बीरा |
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ||
संकुल मकर उरग झष जाती |
अति अगाध दुस्तर सब भाँती ||
कह लंकेस सुनहु रघुनायक |
कोटि सिंधु सोषक तव सायक ||
जद्यपि तदपि नीति असि गाई |
बिनय करिअ सागर सन जाई ||
|| दोहा ||
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि |
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारी ||५०||
|| चोपाई ||
सखा कही तुम्ह नीकी उपाई |
करिअ दैव जौं होइ सहाई ||
मंत्र न यह लछिमन मन भावा |
राम बचन सुनि अति दुख पावा ||
नाथ दैव कर कवन भरोसा |
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ||
कादर मन कहूँ एक अधारा |
दैव दैव आलसी पुकारा ||
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा |
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ||
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई |
सिंधु समीप गए रघुराई ||
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई |
बैठे पुनि तट दर्भ देसाई ||
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए |
पाछें रावन दूत पठाए ||
|| दोहा ||
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह |
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ||५१||
|| चोपाई ||
प्रगट बखानहीं राम सुभाऊ |
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ||
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने |
सकल बाँधि कपीस पहिं आने ||
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर |
अंग भांग करि पठवहु निसिचर ||
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए |
बाँधि कटक चहु पास फिराए ||
बहु प्रकार मारन कपि लागे |
दीन पुकार तदपि न त्यागे ||
जो हमार हर नासा काना |
तेहि कोसलाधीस कै आना ||
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए |
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ||
रावन कर दीजहु यह पाती |
लछिमन बचन बाचु कुलघाती ||
|| दोहा ||
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार |
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ||५२||
|| चोपाई ||
तुरत नाइ लछिमन पद माथा |
चले दूत बरनत गुन गाथा ||
कहत राम जसु लंकाँ आए |
रावन चरन सीस तिन्ह नाए ||
बिहसि दसानन पूँछी बाता |
कहसि न सुक आपनि कुसलाता ||
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी |
जाहि मृत्यु आई अति नेरी ||
करत राज लंका सठ त्यागी |
होइहि जव कर कीट अभागी ||
पुनि कहु भालु कीस कटकाई |
कठिन काल प्रेरित चलि आई ||
जिन्ह के जीनव कर रखवारा |
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ||
कहु तपसिंह कै बात बहोरी |
जिन्हे के हृदयँ त्रास अति मोरी ||
|| दोहा ||
की भई भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर |
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ||५३||
|| चोपाई ||
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें |
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ||
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा |
जातहिं राम तिलक तेहि सारा ||
रावन दूत हमहि सुनि काना |
कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना ||
श्रवन नासिका काटैं लागे |
राम सपथ दीन्हे दीन्हे हम त्यागे ||
पूँछिहु नाथ राम कटकाई |
बदन कोटि सत बरनि जाई ||
नाना बरन भालु कपि धारी |
बिकटानन बिसाल भयकारी ||
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सूत तोरा |
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ||
अमित नाम भट कठिन कराला |
अमित नाम बल बिपुल बिसाला ||
|| दोहा ||
व्दिबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि |
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ||५४||
|| चोपाई ||
ए कपि सब सुग्रीव समाना |
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ||
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं |
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ||
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर |
पदुम अठारह जूथप बन्दर ||
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं |
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ||
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा |
आयसु पै न देहिं रघुनाथा ||
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला |
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ||
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा |
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ||
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका |
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ||
|| दोहा ||
सहज सुर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम |
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ||५५||
|| चोपाई ||
राम तेल बल बुधि बिपुलाई |
सेष सहस सत सकहिं न गाई ||
सक सर एक सोषि सत सागर |
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ||
तासु बचन सुनि सागर पाहीं |
मागत पंथ कृपा मन माहीं ||
सुनत बचन बिहसा दससीसा |
जौं असि मति सहाय कृत कीसा ||
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई |
सागर सन ठानी मचलाई ||
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई |
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ||
सचिव सभीत बिभीषन जाकें |
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ||
सुनी खल बचन दूत रिस बाढी |
समय बिचारि पत्रिका काढ़ि ||
रामानुज दीन्ही यह पाती |
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ||
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन |
सचिव बोलि सठ लाग बचावन ||
|| दोहा ||
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस |
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ||५६(क)||
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग |
होही कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ||५६(ख)||
|| चोपाई ||
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई |
कहत दसानन सबहि सुनाई ||
भूमि परा कर गहत अकासा |
लघु तापस कर बाग बिलासा ||
कह सुक नाथ सत्य सब बानी |
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ||
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा |
नाथ राम सन तजहु बिरोधा ||
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ |
जघपि अखिल लोक कर राऊ ||
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही |
उर अपराध न एकउ धरिही ||
जनकसुता रघुनाथहि दीजे |
इतना कहा मोर प्रभु कीजे ||
जब तेहिं कहा देन बैदेही |
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ||
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ |
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ||
करि प्रनामु निज कथा सुनाई |
राम कृपाँ आपनि गति पाई ||
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी |
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ||
बंदि राम पद बारहिं बारा |
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ||
|| दोहा ||
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति |
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ||५७||
|| चोपाई ||
लछिमन बान सरासन आनू |
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ||
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती |
सहज कृपन सन सुन्दर नीती ||
ममता रत सन ग्यान कहानी |
अति लोभी सन बिरति बखानी ||
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा |
ऊसर बीज बएँ फल जथा ||
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा |
यह मत लछिमन के मन भावा ||
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला |
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ||
मकर उरग झष गन अकुलाने |
जरत जंतु जलनिधि जब जाने ||
कनक थार भरि मनि गन नाना |
बिप्र रूप आयउ तजि माना ||
|| दोहा ||
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच |
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ||५८||
|| चोपाई ||
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे |
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ||
गगन समीर अनल जल धरनी |
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ||
तव प्रेरित मायाँ उपजाए |
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि जाए ||
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई |
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ||
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हि |
मरजादा पुनि तुम्हारी कीन्ही ||
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी |
सकल ताड़ना के अधिकारी ||
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई |
उतरिहि कटकु न मोरी बड़ाई ||
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई |
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहइ ||
|| दोहा ||
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ |
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ||५९||
|| चोपाई ||
नाथ नील नल कपि व्दौ भाई |
लरिकाईं रिषि आसिष पाई ||
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे |
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ||
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई |
करिहउँ बल अनुमान सहाई ||
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ |
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ||
एहिं सर मम उत्तर तट बासी |
हतहु नाथ खल नर अघ रासी ||
सुनि कृपाल सागर मन पीरा |
तुरतहिं हरी राम रनधीरा ||
देखि राम बल पौरुष भारी |
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ||
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा |
चरन बंदि पाथोधि सिधावा ||
|| छंद ||
निज भवन गवनेउ सिंधु
श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ |
यह चरित कलि मलहर जथामति
दास तुलसी गायऊ ||
सुख भवन संसय समन दवन
बिषाद रघुपति गुन गना |
तजि सकल आस भरोस गावहि
सुनहि संतत सठ मना ||
|| दोहा ||
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान |
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ||६०||
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इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पच्छमः सोपानः समाप्तः।
कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले
श्रीरामचरितमानसका
यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ
( सुन्दरकाण्ड समाप्त )